Thursday, September 8, 2011

तू मचलता क्यों नहीं

ऐ थके हारे समंदर तू मचलता क्यों नहीं

तू उछलता क्यों नहीं .

साहिलों को तोड़ के बाहर निकलता क्यों नहीं


तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं

तेरे साहिल पर सितम की बस्तियाँ आबाद हैं,


शहर के मेमार* सारे खानमाँ-बरबाद* हैं


ऐसी काली बस्तियों को तू निगलता क्यों नहीं

तू मचलता क्यों नहीं


तू उछलता क्यों नहीं

तुझ में लहरें हैं न मौज न शोर..


जुल्म से बेजार दुनिया देखती है तेरी ओर


तू उबलता क्यों नहीं

तू मचलता क्यों नहीं


तू उछलता क्यों नहीं

ऐ थके हारे समंदर

तू मचलता क्यों नहीं


तू उछलता क्यों नहीं



एक लम्हा


जिन्दगी नाम है कुछ लम्हों का..

और उन में भी वही एक लम्हा


जिसमे दो बोलती आँखें


चाय की प्याली से जब उठे


तो दिल में डूबें


डूब के दिल में कहें


आज तुम कुछ न कहो


आज मैं कुछ न कहूँ


बस युहीं बैठे रहो


हाथ में हाथ लिए


गम की सौगात लिए..


गर्मी-ए जज़्बात लिए..


कौन जाने कि इस लम्हे में


दूर परबत पे कहीं


बर्फ पिघलने ही लगे..


0 टिप्पणियाँ:

Post a Comment