Friday, August 31, 2018

माँ तुम अब भी रोती हो

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माँ तुम अब भी रोती हो
क्यों दुःखो के बोझ ढोती हो ।
वो कड़वी यादे और वो वादे तुम्हे सताते है
पता है मुझे तुम आज भी रोती हो
जब तुम्हे खाना नही मिलता है
तुम तब भी रोती थी जब उसको खाना नही मिलता था।
माँ तुम ऐसी क्यों हो
आज भी देती आशीष हो
जबकि वो आज भी इस रिश्ते को ढोता है
उसकी नज़र में तुम मां नही बोझ हो
पता नही इस बात का तुमको कब बोध हो।
माँ  कभी कुमाता भी नही होती
फिर ये पूत कपूत क्यों बन जाते है
जबकि उसी कोख से जन्मी पुत्री भी कुपुत्री न बनी।
क्यों माँ क्यों माँ बता न माँ।
पंडित आशीष त्रिपाठी

Posted By KanpurpatrikaFriday, August 31, 2018

Friday, August 17, 2018

जिसको गले लगा न सके

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जिसको गले लगा न सके
वो मित्र तो न थी लेकिन शत्रु सी थी
वो हमसफर तो न थी लेकिन मंज़िल थी
चेहरे में हंसी तो थी लेकिन दिल में ख़ुशी न थी
वो सामने तो थी पर गले न लगा सके
वो आती तो सबके सामने लेकिन दिखती न थी
उसको गले लगाया तो लोग बिछड़ जाते ।
लोगो को गले लगाते तो उसको बुरा लगता ।
इधर ज़िन्दगी थी औऱ उधर मौत
लेकिन मैं ज़िन्दगी को गले लगा न सका ।

Posted By KanpurpatrikaFriday, August 17, 2018

Monday, August 6, 2018

ये लोकतंत्र ये कौन सा मंत्र है

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ये लोकतंत्र ये कौन सा मंत्र है
यहाँ अपराधी नेता है और नेता अपराधी
यहाँ बोलने का हक सबको है
पर बोलता कौन है
मुजफ्फर नगर और देवरिया बस दो बदनाम है
और पता नही कितने छुपे हुए कितने नाम है
समाज सेवी है मवेशी जो बेचते है इंसानो को
गरीब और लाचारों को
जो भागे थे घर से बचाने को इज़्ज़त
उनका ही सौदा करके किया है इंसानियत को बेइज़्ज़त।
सच बताना क्या तुमने माँ का दूध पिया था
क्या एक पल भी उसको जिया था
लेकिन तुम क्या बताओगे तुम उस दूध को भी बेच खाओगे।
गलती उसकी ही थी जिसने तुम्हे जन्म दिया
तुमने उसके दिल मे ही अनगिनत जख्म दिया।
इज़्ज़त शोहरत पैसे के लिए ही तुम ऐसा करते हो
बताओ क्या तुम अपनी बहन और बेटी बेचोगे
हम सब खरीदेंगे पड़ा लिखा उसे इंसान बनाएंगे
और एक दिन उसकी कलम से ही तुम्हे फांसी दिलवाएंगे ।

Posted By KanpurpatrikaMonday, August 06, 2018

Friday, August 3, 2018

साहित्य में सेंध लगाता सोशल मीडिया ! रेखा श्रीवास्तव

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साहित्य में सेंध लगाता सोशल मीडिया !

कल के स्टेटस पर सलिल वर्मा भाई ने कहा कि इस पर तो आलेख आना चाहिए तो प्रस्तुत है :--सोशल मीडिया जिसने हर उम्र के लोगों को अपना दीवाना बना रखा है , वह सिर्फ लोगों को ही नहीं बल्कि साहित्य में भी सेंध लगा रहा है।  इसने मानवीय संबंधो , लेखन , साहित्य सृजन और पठन पाठन को बुरी तरह से प्रभावित का रखा है।  हमारे आपसी सम्बन्ध घर परिवार , पति पत्नी , माँ बच्चों के मध्य सीमित हो गए हैं।  किसी को किसी की चिंता  नहीं है और इसी लिए मानवीय संबंध ख़त्म होते चले जा रहे हैं।  किताबें लिखने के बजाय , पूरी कविता के बजाय चार लाइनें लिखी और वाल पर चेप दी और फिर शुरू होता है लाइक और कमेंट को गिनने का सिलसिला और कमेंट के उत्तर देने का सिलसिला।  वैसे इन कमेंट और लाइक की कोई अहमियत नहीं होती है क्योंकि ये तो लेन देन वाला व्यवहार हो  चु का है।  तू मुझे सराहे और मैं तुझे भी होता है।  लेकिन इसमें स्थायित्व फिर भी  नहीं होता है।  लिखा हुआ चाहे जितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो , समय के साथ पोस्ट के ढेर में नीचे चला जाता है और फिर न लिखने वाले को याद रहता है और न पढ़ने वाले को। इसके अपवाद भी है बल्कि वास्तव में जिस कलम में दम  है और तन्मयता से रचा हुआ साहित्य चाहे ब्लॉग पर हो या सोशल मीडिया पर या प्रिंट मीडिया पर सब सराहे जाते हैं।  फिर भी मैं उन गंभीर लेखों की बात करूंगी कि जितना सृजन वे कर सकते हैं ,उतना कर नहीं  पाते हैं क्योंकि इस फेसबुक और ट्विटर पर सबकी नजर रहती है।

                  वास्तव में अगर एक बार फेसबुक खोलकर बैठ गए तो गृहणी भी सारे काम पड़े रहें उसी में उलझ कर रह जाती है।  एक के बाद एक स्टेटस वो तो क्रम ख़त्म होता ही नहीं है , समय चलता रहता है और काम पड़ा रहे वैसे मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ। जन्मदिन चाहे मित्र का हो या फिर उनके बेटे बेटी पोते पोती किसी का भी हो शुभकामनाएं देना तो बनता है न , किसी किसी दिन तो 25 लोगों का जन्मदिन पड़  जाता है और फिर आप उन सब को सिर्फ एक लाइन में शुभकामनाएं भेजिए कुल हो गई 25 लाइने  - इतने में तो एक लघुकथा या एक कविता का सृजन हो जाता।  इस समय अपनी शक्ति का उपयोग आप किसी भी तरह से कर सकते हैं। मिली हुई शुभकामनाओं की बाकायदा गणना की जाती हैं।  मैंने देखा भी है और सुना भी है।

                       कितना समय हम सोशल मीडिया व्यतीत करते है और उससे कुछ ज्ञान और कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता है लेकिन वह मात्र 5 या 10 प्रतिशत होता है।  उससे अपना लेखन तो नहीं हो जाता है।  विचार ग्रहण कीजिये और फिर अपनी कलम चलाइये।  कहीं भी डालिये अपने ब्लॉग पर , डायरी में , या सोशल मीडिया पर कम से कम लिखना तो सार्थक होगा।  लेकिन एक बात यह सत्य है कि रचनात्मकता के लिए इस सोशल मीडिया से विमुख होना ही पड़ेगा।  ये मेरी अपनी सोच है , कुछ लोग साथ साथ सब कुछ कर सकते हैं लेकिन मैं नहीं कर सकती।  मुझे याद है कि रश्मि रविजा ने जब अपनी उपन्यास "कांच के शामियाने " लिखी थी तो फेसबुक से काफी दिन बहुत दूर रही थी।  यही काम वंदना अवस्थी दुबे ने भी किया था।  कोई सृजन इतना आसान नहीं है कि इधर उधर घूमते रहें और फिर भी सृजन हो जाए।  गाहे  बगाहे झाँक  लिया वह बात और है।  मेरा अपना अनुभव् यही कहता है कि भले ही आपके पास सामग्री तैयार रखी हो लेकिन उसको सम्पादित करते पुस्तकाकार लाने में पूर्ण समर्पण से काम करना पड़ेगा।  मेरे पास भी अपनी दो कविता संग्रह और एक लघुकथा संग्रह की सामग्री संचित है लेकिन उसको सम्पादित करने के लिए समय नहीं दे पा रही हूँ।  वैसे मैं भी बहुत ज्यादा समय नहीं देती हूँ लेकिन जब तक इस के व्यामोह से मुक्त नहीं होंगे कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आने वाला है।  तो कुल मिला कर ये सोशल मीडिया साहित्य सृजन और पठन पाठन में सेंध लगाने का काम कर रहा है और इसके साथ ही व्यक्ति की सामाजिकता को भी प्रभावित कर रहा है। 

                             सावधान होने की जरूरत है और सृजन की दिशा तभी खुलेगी जब इससे दूरी बना ली जाय।

रेखा श्रीवास्तव -- कानपुर

Posted By KanpurpatrikaFriday, August 03, 2018