Thursday, September 8, 2011

दायरा


दायरा



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रोज बढ़ता हूँ जहाँ से आगे
फिर वहीँ लौट के आ जाता हूँ
बारहा तोड़ चूका हूँ जिनको
उन्ही दीवारों से टकराता हूँ..
रोज बसते हैं कई शहर नए
रोज धरती में समा जाते हैं .
जलजलों में थी जरा सी गर्मी
वो भी अब रोज ही आ जाते हैं..
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धुप,न साया, न *सराब
कितने अरमान हैं किस सहरा में
कौन रखता है मजारों का हिसाब
नब्ज बुझती भी, भड़कती भी है
दिल का मामुल है घबराना भी
रात अँधेरे ने अँधेरे से कहा
एक आदत है जिए जाना भी
*कौस एक रंग की होती है *तुलूअ
एक ही चाल भी पैमाने की
गोशे गोशे में खड़ी है मस्जिद
शक्ल क्या हो गयी मैखाने की..

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