Friday, August 6, 2010

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न्यूजरूम
मजमा लगता है हर रोज़,
सवेरे से,
खबरों की मज़ार पर
और टूट पड़ते हैं गिद्दों के माफिक
हम...हर लाश पर
और कभी...
ठंडी सुबह...
उदास चेहरे,
कुहरे में कांपते होंठ-हाथ-पांव,
और दो मिनट की फुर्सत...
काटने दौड़ती है आजकल
अब शरीर गवाही नहीं देता सुस्ती की...
न दिन में और न रात में...
जरूरी नहीं रहे दोस्त...
दुश्मन...
अपने...
बहुत अपने
ज्यादा खास हो गयी है
फूटी आंख न सुहाने वाली
टेलीफोन की वो घंटी...
जो नींद लगने से पहले उठाती है...
और खुद को दो चार गालियां देकर...
फिर चल पड़ता हूं...
चीड़ फाड़ करने...
न्यूजरुम में...
न्यूजरूम
मजमा लगता है हर रोज़,
सवेरे से,
खबरों की मज़ार पर
और टूट पड़ते हैं गिद्दों के माफिक
हम...हर लाश पर
और कभी...
ठंडी सुबह...
उदास चेहरे,
कुहरे में कांपते होंठ-हाथ-पांव,
और दो मिनट की फुर्सत...
काटने दौड़ती है आजकल
अब शरीर गवाही नहीं देता सुस्ती की...
न दिन में और न रात में...
जरूरी नहीं रहे दोस्त...
दुश्मन...
अपने...
बहुत अपने
ज्यादा खास हो गयी है
फूटी आंख न सुहाने वाली
टेलीफोन की वो घंटी...
जो नींद लगने से पहले उठाती है...
और खुद को दो चार गाली

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