Tuesday, December 15, 2015

देशांतर संस्कार

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अब हम थोडा और आगे बढ़ेंगे | जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं, वैसे वैसे हमारा वास्ता पंचांग और कैलेंडर से पड़ता जायेगा | अतः हमें पंचांग के भी कुछ अंगों से प्रत्यक्ष होना पड़ेगा | पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण, ये पांच अंग होते हैं इसीलिए इसे पंचांग कहा जाता है | हम इसमें से कुछ को पहले बता चुके हैं, जैसे वार कैसे आते हैं ? तिथि क्या होती है ? अब उस से आगे बढ़ते हैं |
तिथि – चन्द्रमा की एक कला को एक तिथि माना गया है | अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्लपक्ष और पूर्णिमा से अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्ण पक्ष कहलाती हैं |
अमावस्या – अमावस्या तीन प्रकार की होती है | सिनीवाली, दर्श और कुहू | प्रातःकाल से लेकर रात्रि तक रहने वाली अमावस्या को सिनीवाली, चतुर्दशी से बिद्ध को दर्श एवं प्रतिपदा से युक्त अमावस्या को कुहू कहते हैं |
तिथियों की संज्ञाएँ – 1|6|11 नंदा, 2|7|12 भद्रा, 3|8|13 जया, 4|9|14 रिक्ता और  5|10|15 पूर्णा तथा  4|6|8|9|12|14 तिथियाँ पक्षरंध्र संज्ञक हैं |
नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा
१०
११ १२ १३ १४ १५, ३०
नन्दा तिथियाँ – दोनों पक्षों की प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी (१,६,११) नन्दा तिथियाँ कहलाती हैं | प्रथम गंडात काल अर्थात अंतिम प्रथम घटी या २४ मिनट को छोड़कर सभी मंगल कार्यों के लिए शुभ माना जाता है |
भद्रा तिथियाँ – दोनों पक्षों की द्वितीया, सप्तमी व द्वादशी (२,७,१२) भद्रा तिथि होती है | व्रत, जाप, तप, दान-पुण्य जैसे धार्मिक कार्यों के लिए शुभ हैं |
जया तिथि – दोनों पक्षों की तृतीया, अष्टमी व त्रयोदशी (३,८,१३) जया तिथि मानी गयी है | गायन, वादन आदि जैसे कलात्मक कार्य किये जा सकते हैं |
रिक्ता तिथि – दोनों पक्षों की चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी (४,९,१४) रिक्त तिथियाँ होती है | तीर्थ यात्रायें, मेले आदि कार्यों के लिए ठीक होती हैं |
पूर्णा तिथियाँ – दोनों पक्षों की पंचमी, दशमी और पूर्णिमा और अमावस (५,१०,१५,३०) पूर्णा तिथि कहलाती हैं | तिथि गंडात काल अर्थात अंतिम १ घटी या २४ मिनट पूर्व सभी प्रकार के लिए मंगल कार्यों के लिए ये तिथियाँ शुभ मानी जाती हैं |
इनके अलावा भी कुछ तिथियाँ होती हैं |
१. युगादी तिथियाँ – सतयुग की आरंभ तिथि – कार्तिक शुक्ल नवमी, त्रेता युग आरम्भ तिथि – बैसाख शुक्ल तृतीया, द्वापर युग आरम्भ तिथि – माघ कृष्ण अमावस्या, कलियुग की आरंभ तिथि – भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी | इन सभी तिथियों पर किया गया दान-पुण्य-जाप अक्षत और अखंड होता है | इन तिथियों पर स्कन्द पुराण में बहुत विस्तृत वर्णन है |
२. सिद्धा तिथियाँ – इन सभी तिथियों को सिद्धि देने वाली माना गया है | इसका ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि इनमे किया गया कार्य सिद्धि प्रदायक होता है |
मंगलवार १३
बुधवार १२
गुरूवार १० १५
शुक्रवार ११
शनिवार १४
पर्व तिथियाँ – कृष्ण पक्ष की तीन तिथियाँ अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि और संक्रांति तिथि पर्व कहलाती है | इन्हें शुभ मुहूर्त के लिए छोड़ा दिया जाता है |
प्रदोष तिथियाँ – द्वादशी तिथि अर्ध रात्रि पूर्व, षष्ठी तिथि रात्रि से ४ घंटा ३० मिनट पूर्व एवं तृतीया तिथि रात्रि से ३ घंटा पूर्व समाप्त होने की स्थिति में प्रदोष तिथियाँ कहलाती हैं | इनमें सभी शुभ कार्य वर्जित हैं |
दग्धा, विष एवं हुताषन तिथियाँ –
वार/तिथि रविवार सोमवार मंगलवार बुधवार गुरूवार शुक्रवार शनिवार
दग्धा १२ ११
विष
हुताशन १२ १० ११
उपरोक्त सभी वारों के नीचे लिखी तिथियाँ दग्धा, विष, हुताशन तिथियों में आती हैं | यह सभी तिथियाँ अशुभ और हानिकारक होती हैं |
मासशून्य तिथियाँ – ऐसा कहा जाता है कि इन तिथियों पर कार्य करने से कार्य में उस कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती |

शुक्ल पक्ष कृष्ण पक्ष
चैत्र ८,९ ८,९
बैसाख १२ १२
ज्येष्ठ १३ १४
आषाढ़
श्रावण २,३ २,३
भाद्रपद १,२ १,२
अश्विन १०,११ १०,११
कार्तिक १४
मार्गशीर्ष ७,८ ७,८
पौष ४,५ ४,५
माघ
फाल्गुन
वृद्धि तिथि – सूर्योदय के पूर्व प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय के बाद समाप्त होने वाली तिथि ‘वृद्धि तिथि’ कहलाती है | इसे ‘तिथि वृद्धि’ भी कहते हैं | ये सभी मुहूर्त के लिए अशुभ होती है |
क्षय तिथि – सूर्योदय के पश्चात प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय से पूर्व समाप्त होने वाली तिथि ‘क्षय तिथि’ कहलाती है | इसे ‘तिथि क्षय’ भी कहते हैं | यह तिथि सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दी जाती है |
गंड तिथि – सभी पूर्ण तिथियों (५,१०,१५,३०) की अंतिम २४ मिनट या एक घटी तथा नन्दा तिथियों (१,६,११) की प्रथम २४ मिनट या १ घटी गंड तिथि की श्रेणी में आती हैं | इन तिथियों की उक्त घटी को सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दिया जाता है |
तिथि श्रेणियां – केलेंडर की तिथियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ग्रहों से प्रभावित रहती हैं | अतः इन ग्रहों की संख्या के अनुसार इन तिथियों को ७ श्रेणियों में बांटा जा सकता है |
१. सूर्य प्रभावित तिथियाँ – १, १०, १९, २८ और ४,१३, २२, ३१
२. चन्द्र प्रभावित तिथियाँ – २,११,२०, २९, और ७,१६,२५
३. मंगल प्रभावित तिथियाँ – ९, १८, २७
४. बुध प्रभावित तिथियाँ – ५,१४,२३
५. गुरु प्रभावित तिथियाँ – ३,१२,२१,३०
६. शुक्र प्रभावित तिथियाँ – ६,१५,२४
७. शनि प्रभावित तिथियाँ – ८,१७,२६
करण –  तिथि या मिति के अर्ध भाग को करण कहते हैं | एक तिथि में २ करण आते हैं | अतः मास की ३० तिथियों में करणों की ६० बार पुनरावृत्ति होती है | कुल ११ प्रकार के करण होते हैं  | इनमें चार करण (किन्सतुघ्न, शकुन, चतुष्पद और नाग) स्थिर होते हैं | शेष ७ करणों (बालव, तैतिल, वणिज, बव, कौलव, गरज और विष्टि) की मास में ८-८ बार पुनरावृत्ति होती है | स्थिर करणों में पहला करण किन्सतुघ्न सबसे पहले शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को आता है | शेष तीन स्थिर करण शकुन, चतुष्पद और नाग क्रमशः कृष्णपक्ष की त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस को आते हैं | यह चारों करण अशुभ माने गए हैं | इनमें शुभ कार्य नहीं करने चाहिए | आठवें करण विष्टि को ही भद्रा कहते हैं | भद्रा भी सभी शुभ कार्यों के लिए त्याज्य है | विशेषतः जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुम्भ और मीन राशि में आता है | इस समय भद्रा पृथ्वी पर निवास करती है |
हमने नक्षत्रों की चर्चा अध्याय १ में संक्षिप्त में की थी | यहाँ फिर से हम उसकी आगे चर्चा करते हैं पर यहाँ भी हम थोडा ही लिखेंगे और आगे जैसे जैसे इसका सन्दर्भ आएगा, इसे और विस्तार देंगे |
नक्षत्रों को ७ श्रेणियों में दृष्टी के आधार पर, ३ श्रेणियों में, शुभाशुभ फल के आधार पर ३ श्रेणियों में तथा चोरी गयी वस्तु की प्राप्ति/अप्राप्ति के आधार पर ४ श्रेणियों में बांटा गया है | विशिष्ट पहचान वाले कुल १७ नक्षत्रों में ५ नक्षत्र पञ्चसंज्ञक, ६ नक्षत्र मूलसंज्ञक और ६ नक्षत्रों की कुछ घटी गंड नक्षत्र की श्रेणी में आती हैं |
स्वभाव के आधार पर – नक्षत्रों की स्वभाव के आधार पर ७ श्रेणियों होती हैं | ध्रुव, चंचल, उग्र, मिश्र, क्षिप्रा, मृदु और तीक्ष्ण |
१. ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र – ४,१२,,२१,२६ चार नक्षत्र स्थिर नक्षत्र होते हैं | भवन निर्माण कार्य, कृषि कार्य, बाग़ बगीचे लगाने, गृह प्रवेश, नौकरी ज्वाइन करने, उपनयन संस्कार आदि के लिए शुभ होता है |
२. चंचल (चार) स्वभाव – ७,१५,२२,२३,२३ चंचल नक्षत्र होते हैं | घुड़सवारी करना, मोटर या कार आदि चलाना सीखना, मशीन चलाना, यात्रा करना आदि गतिशील कार्यों के लिए शुभ होते हैं |
३. उग्र (क्रूर) नक्षत्र – २,१०,११,२०,२५ पांच नक्षत्र उग्र होते हैं | भट्टे लगाना, गैस जलाना, सर्जरी करना, मार पीट करना, अस्त्र-शस्त्र चलाना, व्यापार करना, खोज कार्य करना, शोध कार्य करना आदि हेतु शुभ होते हैं |
४. मिश्र (साधारण) नक्षत्र – ३,१६ दो नक्षत्र मिश्र होते हैं | लोहा भट्टी व गैस भट्टी के कार्य, भाप इंजन, बिजली सम्बन्धी कार्य, दवाइयां बनाने आदि हेतु शुभ होते हैं |
५. क्षिप्रा (लघु) नक्षत्र – १,८,१३ व अभिजीत ये चार नक्षत्र क्षिप्रा होते हैं | नृत्य, गायन, रूप सज्जा, नाटक, नौटंकी आदि कार्य करना, दूकान करना, आभूषण बनाना, शिक्षा कार्य, लेखन, प्रकाशन हेतु शुभ होते हैं |
६. मृदु (मित्रवत) नक्षत्र – ५,१४,१७,२७ ये चार नक्षत्र मृदु नक्षत्र होते हैं | कपडे बनाना, सिलाई कार्य, कपडे पहनना, खेल कार्य, आभूषण बनाना एवं पहनना, व्यापार करना, सेवा कार्य, सत्संगति आदि हेतु शुभ होते हैं |
७. तीक्ष्ण (दारुण) नक्षत्र – ६,९,१८,१९ ये चार नक्षत्र तीक्ष्ण अर्थात दुखदायी  होते हैं | हानिकारक कार्य करना, लड़ाई झगडे करना, जानवरों को वश में करना, काला जादू सीखना, मैस्मेरिस्म आदि कार्यों हेतु शुभ माने गए हैं |
दृष्टी के आधार पर – दृष्टी के आधार पर नक्षत्रों की तीन श्रेणी होती हैं | अधोमुखी, उर्ध्वमुखी व त्रियंगमुखी |
१. अधोमुखी नक्षत्र – नीचे की ओर दृष्टी रखने वाले २,३,९,१०,११,१६,१९,२०,२५ कुल ९ नक्षत्र हैं | कुआँ, तालाब, मकान की नीव, बेसमेंट, सुरंग बनवाना, खान खोदना, पानी व सीवर के पाईप डालना जैसे भूमिगत कार्यों के लिए शुभ होते हैं |
२. उर्ध्वमुखी नक्षत्र – ऊपर की दृष्टी रखने वाले (४,६,८,१२,२१,२२,२३,२४,२६) कुल ९ नक्षत्र होते हैं | मंदिर निर्माण, बहुमंजिली भवन निर्माण, मूर्ती स्थापना, ध्वज फहराना, राज्याभिषेक, मंडप बनवाना, बाग़ लगवाना, पहाड़ पर चढ़ना आदि कार्यों हेतु शुभ होते हैं |
३. त्रियंगमुखी नक्षत्र – दायें, बाएं व सम्मुख दृष्टी रखने वाले १,५,७,१३,१४,१५,१७,१८,२७ कुल ९ नक्षत्र हैं | घुड़सवारी करना, मोटर गाडी चलाना, सड़क बनवाना, पशु खरीदना, नाव चलाना, कृषि करना, आवागमन आदि कार्यों हेतु शुभ माने गए हैं |
शुभाशुभ फल के आधार पर – इनमें तीन श्रेणी होती हैं | शुभ, मध्यम एवं अशुभ |
१. शुभ फलदायी – १,४,८,१२,१३,१४,१७,२१,२२,२३,२४,२६,२७ कुल १३ नक्षत्र शुभ फलदायी होते हैं |
२. मध्यम फलदायी – ५,७,१०,१६ कुल चार नक्षत्र थोडा फल देते हैं |
३. अशुभ फलदायी – २,३,६,९,११,१५,१८,१९,२०,२५ ये शेष दस नक्षत्र अशुभ फलदायी होते हैं |
चोरी गयी वस्तु की प्राप्ति/अप्राप्ति के आधार पर – कुल चार श्रेणी होती हैं | अंध लोचन, मंद लोचन, मध्य लोचन एवं सुलोचन |
१. अन्ध लोचन – ४,७,१२,१६,२०,२३,२७ अन्ध लोचन होती है | इन नक्षत्रों में खोई वस्तु पूर्व दिशा में जाती है और शीघ्र मिल जाती है |
२. मन्द लोचन – ७,५,९,१३,१७,२१,२४ मंद्लोचन नक्षत्र हैं | खोई वस्तु, पश्चिम दिशा में जाती है | प्रयत्न करने पर मिल जाती है |
३. मध्य लोचन – २,६,१०,१४,१८,२५ इन छह नक्षत्रों में चोरी गयी वस्तु दक्षिण दिशा में जाती है | सूचना मिलने पर भी नहीं मिलती |
४. सुलोचन – ३,८,११,१५,१९,२२,२६ इन ७ नक्षत्रों में वस्तु उत्तर दिशा में जाती है | न तो वस्तु मिलती है और न कोई उसकी सूचना मिलती है |
विशिष्ट श्रेणियां – विशिष्ट पहचान वाले १७ नक्षत्रों की निम्नलिखित ३ श्रेणियां हैं |
१. पञ्चसंज्ञक नक्षत्र – अंतिम ५ नक्षत्र (२३,२४,२५,२६,२७) पंचंक संज्ञक नक्षत्र होते हैं | इनमें पंचक दोष माना जाता है | किसी भी प्रकार के शुभ कार्य नहीं करने चाहिए |
२. मूल संज्ञक नक्षत्र – ९, १०, १८, १९, २७, १ कुल ६ नक्षत्र मूल संज्ञक हैं | इन नक्षत्रों में जन्मे बालक हेतु २७ दिन बाद उसी नक्षत्र के आने पर शांति पाठ एवं हवन कराना शुभ माना गया है |
३. नक्षत्र गंडात – कुछ नक्षत्रों की कुछ घटियाँ गंडात श्रेणी में आती हैं | यह समय सभी शुभ कार्यों के लिए अशुभ माना जाता है | इनमें ३ नक्षत्रों (१,१०,१९) की प्रारंभ की २ घटी तथा ३ नक्षत्रों की (९,१८,२७) की अंतरिम २ घटी होती हैं |
इसके अलावा कुछ संज्ञाएँ और मिलती हैं |
१. दग्ध संज्ञक नक्षत्र – रविवार को भरणी, सोमवार को चित्रा, मंगल को उत्तराषाढ, बुधवार को धनिष्ठा, बृहस्पतिवार को उत्तराफाल्गुनी, शुक्र को ज्येष्ठा एवं शनि को रेवती दग्ध संज्ञक हैं | इन नक्षत्रों में शुभ कार्य करना वर्जित है |
नक्षत्रों को भी दो प्रकार का कहा गया है |
अ – दिन नक्षत्र – प्रतिदिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है वह दिन नक्षत्र है |
ब – सूर्य नक्षत्र – जिस नक्षत्र पर सूर्य हो वह सूर्य नक्षत्र है |
 इसी प्रकार कोई ग्रह जिस नक्षत्र पर हो, वह उस ग्रह का नक्षत्र होता है |
नक्षत्र भाव वृद्धि – जो नक्षत्र ६० घडी पूर्ण होकर दूरे दिन चला जाए और दुसरे दिन का स्पर्श हो जाए अर्थात घटिकाओं में जो नक्षत्र पड़ता है उसे भाववृद्धि कहते हैं |
योग – कुल मिला कर २७ योग होते हैं | जैसे कि अश्विनी नक्षत्र के आरम्भ से सूर्य और चंद्रमा दोनों मिल कर ८०० कलाएं आगे चल चुकते हैं तब एक योग बीतता है, जब १६०० कलाएं आगे चलते हैं तब २, इसी प्रकार जब दोनों १२ राशियों – २१६०० कलाएं अश्विनी से आगे चल चुकते हैं तब २७ योग बीतते हैं | सूर्य और चंद्रमा के स्पष्ट स्थानों को जोड़ कर तथा कलाएं बना कर ८०० का भाग देने पर गत योगों की संख्या निकल आती है | शेष से यह अवगत किया जाता है कि वर्तमान योग की कितनी कलाएं बीत गयी हैं | शेष को ८०० में से घटाने पर वर्तमान योग की गम्य कलाएं आती हैं | इन गत या गम्य कलाओं को ६० से गुना कर के सूर्य और चंद्रमा की स्पष्ट दैनिक गति के योग से भाग देने पर वर्तमान योग की गत और गम्य घतिकाएं आती हैं |
२७ योगों के नाम इस प्रकार हैं |
`१. विष्कम्भ २. प्रीति ३. आयुष्मान ४. सौभाग्य
५. शोभन ६. अतिगंड ७. सुकर्मा ८. धृति
९. शूल १०. गंड ११. वृद्धि १२. ध्रुव
१३. व्याघात १४. हर्षण १५. वज्र १६. सिद्धि
१७. व्यतिपात १८. वरीयन १९. परिघ २०. शिव
२१. सिद्ध २२. साध्य २३. शुभ २४. शुक्ल
२५. ब्रह्म २६. एन्द्र २७. वैधृति
योगों के स्वामी –
योग स्वामी योग स्वामी योग स्वामी योग स्वामी
`१. विष्कम्भ यम २. प्रीति विष्णु ३. आयुष्मान चंद्रमा ४. सौभाग्य ब्रह्मा
५. शोभन बृहस्पति ६. अतिगंड चंद्रमा ७. सुकर्मा इंद्र ८. धृति जल
९. शूल सर्प १०. गंड अग्नि ११. वृद्धि सूर्य १२. ध्रुव भूमि
१३. व्याघात वायु १४. हर्षण भग १५. वज्र वरुण १६. सिद्धि गणेश
१७. व्यतिपात रूद्र १८. वरीयन कुबेर १९. परिघ विश्वकर्मा २०. शिव मित्र
२१. सिद्ध कार्तिकेय २२. साध्य सावित्री २३. शुभ लक्ष्मी २४. शुक्ल पार्वती
२५. ब्रह्म अश्विनीकुमार २६. एन्द्र पितर २७. वैधृति दिति

परिध योग का आधा भाग त्याज्य है, उत्तरार्ध शुभ है | विष्कम्भ योग की प्रतम पांच घटिकाएं, शूल योग की प्रथम सात घटिकाएं, गंड और व्याघात योग की प्रथम छह घटिकाएं, हर्षण और वज्र योग की नौ घटिकाएं एवं वैधृति और व्यतिपात योग समस्त परित्यज्य है |
लग्न तालिका के १२ भाव
उत्तर भरत में लग्न तालिका नीचे दिए गए चित्र के अनुसार बनाई जाती है | इसमें जो बारह खाने बने हैं उनमें चित्र की तरह केंद्र के प्रथम भाव से प्रारंभ करके घडी की सुइ की उलटी दिशा में चलते हुए बारहवें भाव तक बनाए जाते हैं | उक्त बारह भाव में प्रत्येक भाव मनुष्य के जीवन के किसी विशेष क्षेत्र को तथा किसी विशेष अंग की स्थिति बताता है | प्रत्येक भाव का विस्तृत अध्ययन अलग से किया जायेगा | उदाहरणार्थ प्रथम भाव मनुष्य के सामान्य शारीरिक गठन व सिर के सम्बन्ध में बताता है |
bhaav talikaचित्र -१
जन्म तालिका में राशियों और ग्रहों को प्रदर्शित करना – किसी व्यक्ति के जन्म के समय पृथ्वी अपने परिपथ पर चलते हुए जिस राशि में है, वह राशि की क्रम संख्या के रूप में प्रथम भाव में लिखी जाती है तथा उसके आगे कि राशियाँ घडी की सुइयों के उलटी दिशा में क्रमश दुसरे, तीसरे…..आदि भावों में लिखी जाती है | इस राशि को ही जन्म राशि कहते हैं |
उदाहरण के लिए – यदि किसी व्यक्ति का जन्म चित्र २ के अनुसार उस समय हुआ है, जब पृथ्वी ३० डिग्री एवं ६० डिग्री के बीच अर्थात वृष राशि में थी तो लग्न तालिका के प्रथम भाव में वृष राशि की क्रम संख्या अर्थात २ लिखा जायेगा तथा उसके बाद द्वितीय, तृतीय आदि भावों में लिखा जायेगा | बारहवें भाव में राशि क्रम संख्या १ (मेष) लिखा जायेगा |
राशियों को अंकित करने के बाद अन्य ग्रहों की स्थिति जन्म के समय देख कर उसे सम्बंधित राशि वाले भाव में लिखा जायेगा | उदाहरणार्थ चित्र २ के अनुसार, जन्म के समय बृहस्पति वृष (२) राशि में व चंद्रमा मिथुन (३) राशि में है | अतः चित्र ३ में प्रथम भाव में बृहस्पति व द्वितीय भाव में चंद्रमा लिखा गया है | इसी प्रकार चित्र २ में जन्म के समय शनि व राहु सिंह (५) राशि में, शुक्र मकर (१०) राशियों में, बुध, सूर्य व केतु कुम्भ (११) राशि में तथा मंगल मीन वृष (१२) राशि में है | अतः चित्र ३ में इसी के अनुसार सम्बंधित राशि वाले भाव में इन ग्रहों के नाम लिखे गए हैं | जन्म के समय पृथ्वी किस राशि में, किस डिग्री पर थी तथा अन्य ग्रहों की क्या स्थिति है, इसको ज्ञात करने के लिए गणना का सहारा लिया जाता है जिसकी विस्तृत चर्चा आगे की जाएगी | यहाँ केवल हम कुंडली को समझ रहे हैं.. और उसका कांसेप्ट साफ़ कर रहे हैं | इसकी गणना कैसे करते हैं, वो आगे बताया जायेगा |
चित्र २
लग्न कुंडली व चन्द्र कुंडली – चित्र ३ में वृष राशि में जन्मे व्यक्ति की लग्न कुंडली प्रदर्शित है | यह कुंडली चित्र २ के अनुसार पृथ्वी व अन्य ग्रहों की स्थिति प्रदर्शित करते हुए बनाई गयी है | किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में ज्योतिषीय अध्ययन के लिए जन्म कुंडली के अतिरिक्त चन्द्र कुंडली भी बनाई जाती है | उत्तर भारत में बहुधा जन्म के समय पृथ्वी जिस जिस राशि में होती है उस राशि को उस व्यक्ति की ‘लग्न राशि’ या संक्षेप में केवल ‘लग्न’ कहते हैं तथा जन्म के समय चंद्रमा जिस राशि में होता है उसे ‘चन्द्र राशि’ या संक्षेप में केवल ‘राशि’ कह देते हैं | किसी व्यक्ति की चन्द्र कुंडली बनाने के लिए उसकी लग्न कुंडली में चंद्रमा जिस राशि में हो उस राशि को प्रथम भाव में लिख देते हैं तथा उसके आगे की राशियाँ द्वितीय आदि भाव में पूर्व में दी गयी विधि से ही लिखते हैं |
इसके बाद लग्न कुंडली में जो ग्रह जिस राशि में है उसी राशि में वह ग्रह लिख देते हैं | उदाहरणार्थ चित्र ३ में बनाई गयी लग्न कुंडली की चन्द्र कुंडली चित्र ४ के अनुसार होगी | चित्र ३ में चंद्रमा राशि संख्या ३ (मिथुन) में है अतः चित्र ४ में प्रथम भाव में ३ लिखा गया है तथा उसके बाद की राशियाँ द्वितीय, तृतीय आदि भाव में लिखी गयी हैं | जो ग्रह जिस राशि में चित्र ३ में है, वह उसी राशि में चित्र ४ में लिखा गया है | यदि किसी व्यक्ति के जन्म के समय पृथ्वी व चंद्रमा एक ही राशि में हो तो उसकी लग्न कुंडली के प्रथम भाव में चंद्रमा ही होगा | अतः उसकी लग्न कुंडली और चन्द्र कुंडली एक समान होगी |
चित्र ३
कुंडली बनाने से पहले हमें जन्म समय निकालना आना चाहिए, पर उसके लिए पहले समय के कांसेप्ट को और अच्छे से समझना चाहिए | सीधे जन्म समय का गणित भी बताया जा सकता है, पर हमारा उद्देश्य हर चीज को बारीकी से समझना है इसलिए हम कोई जल्दी नहीं करेंगे | हमने समय को पहले भी संक्षेप में बताया हैं यहाँ घडी और सूर्य के अनुसार समय की चर्चा करेंगे |
भारत वर्ष में स्टैण्डर्ड टाइम ८० डिग्री ५ मिनट रेखांश (देशांतर) निर्धारित हुआ है | किसी विशेष स्थान का समय नहीं है बल्कि ८२ डिग्री ५ मिनट पर रेखांश पर जितने स्थान पड़ते हैं उन सब का यही स्थानक समय समझना चाहिए | इसी के अनुसार भारतवर्ष भर की घड़ियाँ मिलाई जाती है | जब ८२ डिग्री ५ मिनट रेखांश के देशो में १२ बजते हैं तो सम्पूर्ण भारत की घड़ियों में उस समय १२ बजते हैं | इसके कारण व्यवहारिक रीति से कारोबार करने में सुविधा हो गयी कि यदि एक घडी में १२ बजेंगे तो सरे भारतवर्ष में १२ बजेगा |
१.७.१९०५ में यह स्टैण्डर्ड समय की व्यवस्था नहीं थी | इसके पहले ऐसा नहीं होता था, प्रत्येक स्थानों में पृथक पृथक समय ही प्रचलित था |
जिस प्रकार भारतवर्ष का स्टैण्डर्ड समय निर्धारित हुआ है उसी प्रकार प्रत्येक देश का पृथक पृथक स्टैण्डर्ड समय निर्धारित कर दिया गया है और ग्रीनविच समय को मध्य जान कर उसके हिसाब से यह समय निर्धारित हुआ है | बर्मा का स्टैण्डर्ड समय ६.३० मिनट है अर्थात बर्मा भारतवर्ष के समय से १ घंटा बढ़ा हुआ है | दूसरी लड़ाई के समय बर्मा में लड़ाई होने के कारण बर्मा का स्टैण्डर्ड समय भारत में लागू कर दिया गया था यानि की पुराने समय में १ घंटा आगे बढ़ा दिया गया था जो तारिख १ सितम्बर १९४२ से १५ ऑक्टोबर १९४५ के २ बजे तक प्रचलित रहा |
अब के समय में घड़ियों में २ समस्या हैं | एक तो यह कि यदि एक घडी बंद होती है तो दूसरी घडी से मिलान करने पर २-४ मिनट का अंतर प्रत्येक घडी में आ ही जाता है | रेलवे या पोस्ट ऑफिस से बहुत कम घड़ियाँ मिली हुई होती हैं |
दूसरी समस्या यह कि आजकल जो घड़ियाँ बनती हैं वो किसी नियमित गति से ही चलती है अर्थात वह घडी एक दिन में जिस गति से चलेगी सदा उसी गति से वह घडी चलती रहेगी | अर्थात १२ घंटे में जिस प्रकार घंटे का काँटा एक बार पूरा घूम कर फिर १२ पर आएगा और उसके लिए जितना समय लगेगा सदा उतना ही समय प्रतिदिन उस घडी में उसी प्रकार घंटे का कांटा एक बार पूरा घूम जाने में लगेगा | ऐसा नहीं होता कि कभी १२ घंटा लगा हो और कभी ११.५० घंटे में एक बार काँटा पूरा घूम गया हो | इस प्रकार घडी की चाल एक सी बनी रहती है |
अब सूर्य का विचार कीजिये जिसका समय बताने के लिए ये घड़ियाँ बनी हैं | सूर्य की प्रतिदिन की गति एक सी नहीं होती | कभी दिन भर में ५७ कला गति होती है, कभी वह गति प्रतिदिन क्रमशः बढ़ते बढ़ते ६१ कला तक हो जाती है और फिर घटने लगती है | इस प्रकार सूर्य की गति घटती बढती रहती है | जबकि घडी ऐसी नहीं बनी होती जो सूर्य की गति के अनुसार कभी घडी की गति धीमी या तेज हो जाये |
अतः किसी स्थान का सही लोकल समय वही होगा जो धुप घडी के अनुसार वहां का समय होगा | धुप घडी के समय को स्थानिक समय या लोकल टाइम कहते हैं | परन्तु घड़ियों में जो दोपहर का समय प्रकट होता है वह वहां के ठीक दोपहर का समय नहीं होता |
स्थानीय समय २ प्रकार का होता है |
क) प्रत्यक्ष स्थानीय समय (Apparent Local Time)
ख) मध्यम स्थानीय समय (Local Mean Time)
प्रत्यक्ष समय और मध्यम स्थानीय समय – इस प्रकार सूर्य के और घड़ियों के समय के अंतर की कठिनाई दूर करने के लिए ज्योतिषियों ने एक नकली सूर्य आकाश में घूमता हुआ मान लिया है | इस सूर्य को मध्यम सूर्य कहते हैं जो भूमध्य रेखा पर एक सी गति से घुमते हुए मान लिया गया है  और इस मध्यम सूर्य (Mean Sun) के समय का मिलान सच्चे सूर्य के समय से उस समय होता है जब कि सच्चा सूर्य मेघ सम्पात (Vernel Equinox) में होता है और उस समय दिन रात बराबर होते हैं |
जो समय अपने असली सूर्य से प्रकट होता है उसे स्पष्ट समय या प्रत्यक्ष समय कहते हैं परन्तु जो मध्यम सूर्य के चलने के कारण जो समय प्रकट होता है वह मध्यम समय कहलाता है | अपनी घड़ियाँ इसी मध्यम समय को बतलाती हैं अर्थात घडी के समय को मध्यम समय कहेंगे | मध्यम समय और स्पष्ट समय के अंतर को बेलांतर (Equation of Time) कहते हैं | यह अंतर १६ मिनट से अधिक का नही होता |
मध्यम सूर्य का ६ बजे ठीक उगना, १२ बजे दोपहर होना और ६ बजे संध्या के समय अस्त मानते हैं | परन्तु वास्तविक सूर्य के उदय अस्त के समय में प्रतिदिन अंतर पड़ता है |
बता चुके हैं कि घडी का समय मध्यम समय है और इससे जो स्थानीय समय निकाला गया है वह भी मध्यम स्थानीय समय ही होगा | इस प्रकार निकाल गया स्थानीय समय भी शुद्ध नहीं है क्योंकि यह समय भी घडी के अनुसार निकला है जबकि सूर्य की गति एक सी नहीं रहती लेकिन घड़ियों की गति एक सी रहती है इस कारण इस मध्यम समय को सूर्य के अनुसार करना पड़ता है | इसमें ऊपर बताये गए तरीके से बेलांतर संस्कार करने से ही शुद्ध समय निकलता है | इस शुद्ध समय को लेकर इष्ट काल (आगे बतया जायेगा ) निकाल कर ही कुंडली बनायी जाती है |
 देशांतर संस्कार – कोई देश ग्रीनविच से जितने रेखांश दूरी पर हो उसके घंटा मिनट बना लीजिये | यदि वह देश ग्रीनविच से पूर्व में है तो ग्रीनविच समय से जोड़ देंगे और यदि पश्चिम में हो तो घटा देंगे तो वहां का समय निकल आएगा | इस प्रकार से इष्ट देश के समय का अंतर ज्ञात हो जायेगा इसे ही देशांतर संस्कार कहते हैं |
जैसे किसी स्थान का देशांतर ग्रीनविच से १० डिग्री पूर्व है तो १ डिग्री = ४ मिनट के हिसाब से १० डिग्री = १० x ४ = ४० मिनट का नातर ग्रीनविच से पड़ेगा | इसी प्रकार भारत के ८२ डिग्री ५ मिनट को भी निकाला जा सकता है |
आज कल घड़ियाँ जो समय बताती हैं वह स्टैण्डर्ड समय है और बहुधा लोग इसे ही नोट करते हैं | इस कारण उस समय की शुद्धि की आवश्यकता होती है |
जैसे – यदि भरत का देशांतर ८२ डिग्री ५ मिनट = ५ घंटा – ३० मिनट पूर्व है | जबलपुर ८० डिग्री ० मिनट पर है तो ८०x४ = ३२० मिनट = ५ घंटा २० मिनट मतलब १० मिनट का अंतर रहेगा | अतः घडी में जब १२ बजेंगे तो जबलपुर का स्थानीय समय ११ बजाकर ५० मिनट होगा |
ऐसे ही काशी का देशांतर ग्रीनविच से ८३ डिग्री ० मिनट पूर्व है तो ८३x४ = ५ घंटा ३२ मिनट | यहाँ काशी का देशांतर ८२ डिग्री ५ मिनट से अधिक है तो २ मिनट (दोनों का अंतर) घडी के समय में जोड़ देंगे | जब स्टैण्डर्ड समय (घडी में) १२ बजेगा तो काशी में २ मिनट अधिक होगा अर्थात १२ बजाकर २ मिनट होगा |

Posted By KanpurpatrikaTuesday, December 15, 2015

नवग्रहों की स्तिथि एवं विभिन्न पातालों का वर्णन

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नवग्रहों की स्तिथि एवं विभिन्न पातालों का वर्णन


नारद जी ने कहा – कुरुश्रेष्ठ ! भूमि से लाख योजन ऊपर सूर्य मंडल है । भगवान् सूर्य के रथ का विस्तार नौ सहस्त्र योजन है । इसकी धुरी डेढ़ करोड़ साढ़े सात लाख योजन की है । वेद  के जो सात छंद हैं वे ही सूर्य के रथ के सात अश्व हैं । उनके नाम सुनो – गायत्री, वृहती, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और षडंक्ति – ये छंद ही सूर्य के घोड़े बताये गए हैं । सदा विद्यमान रहने वाले सूर्य का न तो कभी अस्त होता है और न ही कभी उदय होता है । सूर्य का दिखाई देना ही उदय है और उनका द्रष्टि से ओझल होना ही अस्त है ।
उत्तरायण के प्रारंभ में सूर्य मकर राशि में जाते हैं उसके पश्चात वे कुम्भ और मीन राशियों में एक राशि से दूसरी राशि में होते हुए जाते हैं । इन तीनो राशियों के भोग लेने पर सूर्यदेव दिन और रात दोनों को बराबर करते हुए विषुवत रेखा पर पहुचते हैं । उसके बाद से प्रतिदिन रात्रि घटने लगती है और दिन बढ़ने लगता है । फिर मेष तथा वृष राशि का अतिक्रमण करके मिथुन के अंत में उत्तरायण की अंतिम सीमा पर उपस्थित होते हैं और कर्क राशी में पहुच कर दक्षिणायन का आरम्भ करते हैं । जैसे कुम्हार के चाक के सिरे बैठा हुआ जीव बड़ी शीघ्रता से घूमता है उसी प्रकार सूर्य भी दक्षिणायन को पार करने में शीघ्रता से चलते हैं । वे वायु वेग से चलते हुए, अत्यंत वेगवान होने के कारण बहुत दूर की भूमि भी थोड़े ही देर में पार कर लेते हैं और इसका उल्टा उत्तरायण में होता है जिसमें सूर्य मंद गति से चलते हैं ।
संध्या काल आने पर मन्देह  नामक राक्षस भगवान् सूर्य को खा जाने की इच्छा करते हैं । उन राक्षसों को प्रजापति से ये श्राप है की उनका शरीर तो अक्षय रहेगा किन्तु उनकी मृत्यु प्रतिदिन होगी । अतः संध्याकाळ में उन राक्षसों के साथ सूर्य के साथ बड़ा भयानक युद्ध होता है । उस समय द्विज लोग गायत्री मन्त्र से पवित्र किये जल का अर्ध्य देते हैं जिस से वो पापी राक्षस जल जाते हैं । इसीलिए सदा संध्योपासना करनी चाहिए । धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, विवस्वान, इंद्र, पूषा, सविता, भग, स्वष्टा तथा विष्णु ये बारह आदित्य चैत्र आदि मासों में सूर्य मंडल के अधिकारी माने गए हैं ।
सूर्य के स्थान से लाख योजन दूर चन्द्रमा का मंडल स्थित है, चन्द्रमा का रथ भी तीन पहियों वाला वताया गया है । उसमें बाई और दाहिनी ओर कुंद के समान श्वेत दस घोड़े जुते होते हैं । चंद्रमा से पूरे एक लाख योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्र मंडल प्रकाशित होता है । नक्षत्रों की संख्या अस्सी समुन्द्र चौदह अरब और बीस करोड़ बताई गयी है । नक्षत्र मंडल से दो लाख योजन ऊपर बुध का स्थान है । चन्द्र नंदन बुध का रथ वायु तथा अग्नि द्रव्य से बना हुआ है, उनके रथों में भी आठ घोड़े जुते  हुए हैं । बुध से भी दो लाख योजन ऊपर शुक्राचार्य का स्थान माना गया है । शुक्र से लाख योजन ऊपर मंगल का स्थान माना गया है । मंगल से दो लाख योजन ऊपर देव पुरोहित बृहस्पति का स्थान माना गया है । बृहस्पति से दो लाख योजन ऊपर शनैश्चर का स्थान है । राहु के रथ में भ्रमर के समान  रंग वाले आठ घोड़े हैं, वे  ही बार में जोत दिए गए हैं और सदा उनके धूसर रथ को खींचते रहते हैं । उनकी स्तिथि सूर्यलोक से नीचे मानी गयी है । शनैश्चर से एक लाख योजन ऊपर सप्तर्षि मंडल है और उनसे भी लाख योजन ऊपर ध्रुव की स्तिथि है । ध्रुव समस्त ज्योति मंडल के केंद्र हैं ।
अर्जुन ! यह सारा ज्योतिर्मंडल वायु रूपी डोर से ध्रुव से बंधा हुआ है । सूर्यमंडल का विस्तार नौ हजार योजन है, उनसे दूना चंद्रमा का मंडल बताया गया है । मंडलाकार राहु इन दोनों के बराबर होकर पृथ्वी की निर्मल छाया ग्रहण करके उनके नीचे चलता है । शुक्राचार्य का मंडल चन्द्रमा के सोलहवें भाग के बराबर है । बृहस्पति मंडल का विस्तार शुक्राचार्य से एक चौथाई कम है । इसी प्रकार मंगल, शनैश्चर और बुध – ये बृहस्पति की अपेक्षा भी एक चौथाई कम है ।
पृथ्वी पर स्थित सभी लोक जहाँ पैदल जाया जा सकता है, भूलोक कहलाता है । भूमि और सूर्य के बीच जो चौदह लाख योजन का अवकाश है, उसे विज्ञ पुरुष स्वर्गलोक कहते हैं । ध्रुव से ऊपर एक करोड़ योजन तक महर्लोक बताया गया है । उस से ऊपर २ करोड़ योजन तक जनलोक है, जहाँ सनकादि निवास करते हैं । उस से ऊपर चार करोड़ योजन तक तपोलोक माना गया है, जहाँ वैराज नाम वाले देवता संताप रहित हो कर निवास करते हैं । तपोलोक से ऊपर उसकी अपेक्षा छः गुने विस्तार वाले सत्यलोक विराजमान हैं । जहाँ के लोगों की पुनर्मृत्यु नहीं  होती । सत्यलोक ही ब्रह्मलोक माना गया है
भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्गलोक – इन तीनों को त्रैलोक्य कहते हैं । यह त्रैलोक्य (अनित्य) लोक हैं । जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक – ये तीनों नित्य लोक है । नित्य और अनित्य लोकों के बीच में महर्लोक की स्थिति मानी गयी है । ये पुन्यकर्मों द्वारा प्राप्त होने वाले सात लोक बताये गए हैं ।
अर्जुन ! वायु की सात शाखाएं हैं, उनकी स्थिति जिस प्रकार है, वह बतलाता हूँ, सुनो – प्रथ्वी को लांघ कर मेघमंडलपर्यन्त जो वायु स्थित है, उसका नाम ‘प्रवाह’ है । वह अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर उधर उड़ाकर ले जाती है । धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवाह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है, जिस से ये मेघ कलि घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं । वायु की दूसरी शाखा का नाम ‘आवह’ है, जो सूर्यमंडल में बंधी हुई है । उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध हो कर सूर्यमंडल घुमाया जाता है । तीसरी शाखा का नाम ‘उद्वह’ है जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है । इसी के द्वारा ध्रुव से सम्बद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है । चौथी शाखा का नाम ‘संवह’ है, जो नक्षत्रमंडल में स्थित है । उसी से ध्रुव से आबद्ध  होकर सम्पूर्ण नक्षत्रमंडल घूमता रहता है । पांचवी शाखा का नाम ‘विवह’ है और यह ग्रहमंडल में स्थित है । उसकी के द्वारा यह गृह चक्र ध्रुव से सम्बद्ध हो कर घूमता रहता है । वायु की छठी शाखा का नाम ‘परिवह’ है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है । इसी के द्वारा ध्रुव से सम्बद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं । वायु के सातवें स्कन्ध का नाम ‘परावह’ है जो ध्रुव में आबद्ध  है । इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं ।
अब पाताल का वर्णन सुनो । भूमि की ऊंचाई सत्तर हजार योजन है । इसके भीतर सात पाताल हैं, जो एक दूसरे से दस दस हजार योजन की दूरी पर हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं – अतल, वितल, नितल, रसातल, तलातल, सुतल तथा पाताल । कुरुनन्दन ! वहां की भूमियाँ सुन्दर महलों से सुशोभित हैं । उन पातालों में दानव, दैत्य और नाग सैंकड़ों संघ बनाकर रहते हैं । वहां पर न गर्मी है, न सर्दी है, न वर्षा है, न कोई कष्ट ।  सातवें पाताल में ‘हाटकेश्वर’ शिवलिंग है, जिसकी स्थापना ब्रह्मा जी के द्वारा हुई थी । वहां अनेकानेक नागराज उस शिवलिंग की आराधना  करते हैं । पाताल के नीचे बहुत अधिक जल है और उस के नीचे नरकों की स्थिति बताई  है ।

Posted By KanpurpatrikaTuesday, December 15, 2015

सौर मंडल

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सौर मंडल – सौर मंडल में ९ ग्रहों में अरूण ग्रह (यूरेनस), वरुण ग्रह (नेपच्यून) और यम (प्लूटो) को प्राचीन ज्योतिष में नहीं गिना गया है (ऐसा माना गया है कि इनसे आती हुई किरणें मनुष्य जीवन को बहुत प्रभावित नहीं करते या इनका प्रभाव नगण्य है | ) चंद्रमा और दो छाया ग्रह जिन्हें राहु, केतु माना गया है | राहु और केतु वास्तव में कोई वास्तविक ग्रह नहीं है बल्कि गणितीय गणनाओं से आई सूर्य और चंद्रमा कि कक्षाओं के मिलान बिंदु हैं |
शुक्र और बुध, पृथ्वी और सूर्य के मध्य आते हैं अतः इन्हें “आतंरिक ग्रह” (Inner Planets or Inferior Plantes) कहा जाता है |
मंगल, गुरु और शनि पृथ्वी की कक्षाओं से बाहर की तरफ आकाश में स्थित हैं अतः इन्हें “बाहरी ग्रह” (Outer Palnets or Superior Planets) कहते हैं |
पृथ्वी अपने अक्ष पर और सूर्य के चारों ओर लगातार घूमती है | इसकी गति ३० किमी/सेकंड या १६०० किमी/मिनट या ९६६०००००० किमी/वर्ष है |
पृथ्वी अपने अक्ष से २३.५ झुकी हुई है | धरती अपने अक्ष पर इस प्रकार झुकी हुई है जिससे कि इसका उत्तरी सिरा हमेशा उत्तरी ध्रुव तारे के सामने रहता है | जहाँ पर पृथ्वी के अक्ष के उत्तरी और दक्षिणी सिरे पृथ्वी की सतह पर मिलते हैं, उनको ही उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है |
Chitra 1चित्र – १
भूमध्य रेखा – यदि पृथ्वी के मध्य से जाता हुआ यदि एक Plan खींचे जो पृथ्वी के अक्ष से लम्बवत (Perpendicular) हो तो वो पृथ्वी की सतह को जब काटेगा तो वह एक वृत्त होगा, जिसे पृथ्वी कि भूमध्य रेखा कहते हैं |
चित्र २ चित्र – २
उत्तरी गोलार्ध एवं दक्षिणी गोलार्ध – उस plan के उत्तरी भाग को उत्तरी गोलार्ध व दक्षिणी भाग को दक्षिणी गोलार्ध कहते हैं |
रेखांश (Longitudes) एवं अक्षांश (Latitude) – पृथ्वी की सतह को सामान भागों में Vertical एवं Horizontal भागों में बांटने को रेखांश व् अक्षांश कहते हैं | अक्षांश (अक्ष का अंश) horizontal lines एवं रेखांश Vertical lines को कहते हैं | इसे आप पृथ्वी के co-ordinates भी कह सकते हैं |
३६० अक्षांश एवं ३६० रेखांश मिला कर १का एक Post बनाते हैं जो पूरा वर्ग (square) नहीं होता क्योंकि पृथ्वी पूरी गोल नहीं है | पृथ्वी कि परिधि ४०३४३ किमी है अतः १का वर्ग ११० किमीx११० किमी या ६९ milesx६९ miles का होता है और उस भाग में जो शहर आते हैं उन्हें उसके रेखांश और अक्षांश से ही निकालते हैं और ये रेखांश या अक्षांश एक दूसरे से पूरी तरह सामानांतर (parallal) नहीं होती क्योंकि पृथ्वी कि भौगोलिक रचना ऐसी नहीं है | रेखांश को देशांतर भी कहते हैं |
२३.५ अंश उत्तरी अक्षांश रेखा को कर्क रेखा तथा २३.५ अंश दक्षिणी अक्षांश रेखा को मकर रेखा कहते हैं |
चित्र ३  चित्र – ३
चित्र ४ चित्र – ४
 चित्र ५चित्र ६
चित्र – ५                                                                                 चित्र – ६
मानक मध्यान्ह रेखा या मुख्य मध्यान्ह रेखा (Standard Meridian) – प्रत्येक देश का फैलाव उत्तर व् दक्षिण की ओर ही नहीं होता बल्कि पूर्व और पश्चिम में भी होता हो | जो देश पूर्व में होंगे वहां मध्यान्ह पहले होगा बजाय उनके जो पश्चिम में होंगे | इस कारण पूर्व वाले स्थानों का स्थानीय समय पश्चिम वाले स्थानो से अधिक होगा | इससे समस्या यह आती है कि पूर्व वाला समय कुछ बताएगा और पश्चिम वाला कुछ और बताएगा | सांसारिक व्यवहार गड़बड़ा जायेगा | इस का हल यह निकाला गया कि एक देश और अधिक विस्तार वाले देशों को क्षेत्रों में बांटकर एक क्षेत्र की एक मुख मध्यान्ह रेखा/मानक मध्यान्ह रेखा हो और उस स्थान का स्थानीय समय उस सारे देश या क्षेत्र में मान्य हो अर्थात उस समयानुसार ही उस देश या क्षेत्र के सारे सांसारिक कार्य संपन्न किये जायेंगे |
 चित्र ७चित्र – ७
 चित्र ८चित्र – ८
प्रधान मध्यान्ह रेखा या प्रथम मध्यान्ह रेखा (Prime Meridian) – सारी रेखांश को मापने के लिए एक मध्य रेखांश चुना गया है जो ग्रीनविच से होते हुए जाता है | उसे 0E या 0 रेखांश माना जाता है और बाकी सारे उसके सन्दर्भ में गिनते हैं पूर्व की ओर या पश्चिम कि ओर | भारत में ८२.५ अंश पूर्वी रेखांश = ८२३०’ के आधार पर मानक समय प्रामाणित है |
अब हमें समझना चाहिए कि सूर्य सर्वप्रथम १८० अंश पूर्वी रेखांश पर निकालता है और धीरे धीरे ० अंश रेखांश ग्रीनविच को पार करता हुआ १८० अंश पश्चिमी रेखांश पर पहुँच कर छिपता हुआ दृष्टिगोचर होता है | इस यात्रा में इसे २४ घंटे लगते हैं अर्थात सूर्य १८० अंश पूर्वी + १८० अंश पश्चिमी = ३६० रेखांशों को २४ घंटे में पार करता है | इस प्रकार १ रेखांश पार करने में २४ घंटे x ६० मिनट = १४४० मिनट लगते हैं यानी १ पार करने में १४४०/३६० = ४ मिनट लगते हैं | यही कारण है कि १८० पूर्वी रेखांश के नजदीक जापान में जब सोमवार होता है तो १८० पश्चिमी रेखांश के नजदीक होनोलुलु में रविवार का दिन होता है | ऐसी स्थिति में विश्व के किसी भी स्थान/रेखांश पर खड़े होकर सूर्य कि स्थिति जान सकते हैं | सूर्योदय और दोपहर अर्धरात्रि अमुक समय किस स्थान पर होगी, स्पष्ट रूप से बता सकते हैं |
चित्र ९चित्र – ९
अब ऊपर की दोनों बातों को ध्यान में रख कर हम समय गणना को समझने का प्रयास करेंगे | ऊपर कि बातों से ये स्पष्ट है कि दो भिन्न भिन्न स्थानों के स्थानीय समयों में अंतर अवश्य आएगा जैसे दिल्ली और कोलकाता के स्थानीय समय में ४४’३८’’ का अंतर है अर्थात जब कोलकाता में २ बजकर ४४’३८’’ होंगे तब दिल्ली में २ बजे होंगे |
किसी स्थान का किसी समय पर औसत समय ज्ञात करने के लिए (१) उस स्थान का देशांतर (रेखांश/Longitude) (२) उस क्षेत्र/देश, जिसमें वह स्थान है, वहां का मानक समय (IST, भारत के सन्दर्भ में) (३) उस देश/क्षेत्र की मानक मध्यान्ह रेखा का देशांतर मालूम होना चाहिए | इसके बाद निम्न प्रक्रिया  से स्थानीय समय ज्ञात किया जा सकता है |
प्रथम चरण – स्थानीय देशांतर और देश/क्षेत्र कि मानक मध्यान्ह रेखा के देशांतर का अंतर ज्ञात कर लें |
दूसरा चरण – इस अंतर को ४ मिनट प्रति अंश के अनुसार गुना करें | (पृथ्वी ३६० २४ घंटे में घूमती है अर्थात १५ = १ घंटा या १ = ४ मिनट) अंश को ४ से गुना करने से मिनट व् कला को ४ से गुना करने पर सेकंड्स में समय का अंतर आ जायेगा |
तीसरा चरण – अगर वह स्थान मानक रेखा के पूर्व में हो तो दूसरे चरण वाला समय, मानक समय में जोड़ देंगे और पश्चिम में हो तो घटा देंगे | ऐसा करने पर स्थानीय समय आ जायेगा |
उदाहरण – भुवनेश्वर (उड़ीसा) में सांय ६ बज कर २५ मिनट भारतीय मानक समय पर वहां स्थानीय समय क्या था ? भुवनेश्वर का देशांतर ८५ ५०’ पूर्व है |
विधि (i) – भुवनेश्वर का देशांतर =  ८५ ५०’ पूर्व
मानक रेखा का देशांतर =  ८२३०’ पूर्व
दोनों का अंतर = ३ डिग्री २० मिनट = ३२०’
इसे ४ से गुणा करने पर ३२०’ x ४ = १२ मिनट ८० सेकंड्स = १३ मिनट २० सेकंड्स
क्योंकि यह मानक रेखा के पूर्व में है इसलिए इसका स्थानीय समय अधिक होगा |
अतः स्थानीय समय = ६:२५:० + ०:१३:२० = ६:३८:२० सांय
विधि (ii)  – यही काम लहरी कि लग्न सारिणी ने और आसान कर दिया | लाहिरी कि लग्न सारिणी में पृष्ठ १०१ पर यहाँ के लिए स्थानीय संस्कार के Coulmn में +१३ मिनट २० सेकंड दिया है |
इसे हम सीधा स्थानीय समय में परिवर्तित कर सकते हैं –
घटना का स्थानीय समय = भारतीय मानक समय + संस्कार
= ६:२५:० + ०:१३:२० = ६:३८:२० सांय
जो विधि (i) से मिलता है |
उदहारण २ : चेन्नई में ९ बजकर ३५ मिनट भारतीय मानक समय का स्थानीय समय क्या होगा ? चेन्नई का देशांतर ८०१५’ पूर्व है |
(अ)       देशान्तरों का अंतर ८२३०’ – ८०१५’ = २१५’
(आ)                       २१५’ x ४ = ८ मिनट ६० सेकंड्स = ९ मिनट
(इ)   चेन्नई का देशांतर मानक देशांतर (पूर्व) से कम है इस कारण चेन्नई मानक देशांतर वाले स्थान से पश्चिम में हुई | इसलिए ९ मिनट घटाएंगे | चेन्नई की घटना के समय स्थानीय समय ९ घंटा ३५ मिनट – ९ मिनट = ९ घंटा २६ मिनट प्रातः
अब इसे हमें याद रखना होगा, आगे जाकर यह जन्म समय निकालने में काम आएगा | तब हम विदेशों के स्थानीय समय निकालना भी सीखेंगे |
आकाशीय गोल या खगोल (celestial Sphere) – जिस प्रकार हम किसी गोल गुब्बारे को फुलाते हैं तो वह छोटे से बड़ा फिर और बड़ा हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी को अनन्त आकाश में फैलाने पर जो गोला बनेगा उसे आकाशीय गोला या खगोल कहते हैं | इस खगोल का केंद्र पृथ्वी का केंद्र होगा |
कान्तिवृत्त (Ecliptic) – सूर्य के तारों के बीच एक वर्ष के आभासीय भ्रमण मार्ग को इसकी कक्षा कहते हैं | जब इस कक्षा को खगोल में फैलाया जावे तो खगोल के ताल पर एक बड़ा वृत्त बनता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं | मॉडर्न science में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करता है न कि सूर्य पृथ्वी की (इसको टाल्मी ने माना कि जिसे हम सूर्य का आभासीय भ्रमण कहते हैं वह पृथ्वी का भी आभासीय भ्रमण हो सकता है किन्तु यहाँ हम Modern Science को ही प्रमाण मानेगे ) इस कारण क्रांतिवृत्त की परिभाषा यह भी होती है कि पृथ्वी के वार्षिक भ्रमण मार्ग को अनन्त आकाश में फैलाने पर जिन स्थानों पर वह खगोल को काटे उस वृत्त को कान्तिवृत्त कहते हैं | यह कान्तिवृत्त विषुववृत्त (celestial Equator) पर २३२७’ का कोण बनाता है |
चित्र १०चित्र – १०
भचक्र या राशिचक्र – कान्तिवृत्त के दोनों ओर उत्तर और दक्षिण में ९ की पट्टी को भचक्र कहते हैं | इसमें वृत्त पर कान्तिवृत्त के ९ उत्तर में और व् ल कान्तिवृत्त के ९दक्षिण में है | इसी पट्टी में चंद्रमा व् सारे ग्रह भ्रमण करते हैं | मैंने बहुत प्रयास किया किन्तु इसका चित्र में नहीं बना पा रहा हूँ, सिर्फ समझने भर के लिए मैंने ऊपर वाले चित्र को थोडा बदला है |
चित्र ११ चित्र – ११
भोगांश (celestial Longitude) – कान्तिवृत्त के ध्रुवों को कदम्ब कहते हैं |  कदम्बों को मिलाने वाले बड़े वृत्त कान्तिवृत्त को लम्बवत काटते हैं | आकृति १२ में प और फ कदम्ब हैं | आकाशीय पिंड की कान्तिवृत्त पर मेष के प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी को भोगांश कहते हैं | इसे इस प्रकार समझे कि आकाशीय पिंड से कान्तिवृत्त के तल पर खगोल कि सतह के साथ लम्बवत चाप डालें और जिस स्थान पर वह कान्तिवृत्त को काटे, उस स्थान की मेष के प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी भोगांश होती है |
चित्र १२
चित्र १२
विक्षेप या शर (celestial Latitude) – आकाशीय पिंड से कान्तिवृत्त पर लम्बवत चाप की कोणीय दूरी को विक्षेप (शर) कहते हैं |
विशुवांश – आकाशीय पिंड से विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप जहाँ मिले, उस बिंदु की सायन मेष का प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी को विशुवांश कहते हैं | यह विषुवत वृत्त का भाग या अंश होने से विशुवांश कहलाता है |
क्रान्ति (Declination) – आकाशीय पिंड से विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप जो कोण पृथ्वी के केंद्र (या खगोल के केंद्र) पर बनावे, वह कोण क्रांति होती है अर्थात आकाशीय पिंड की विषुवत वृत्त से लम्बवत कोणीय दूरी को क्रांति कहते हैं |
ऊपर कि आकृति में अ ब विषुवत वृत्त हैं |
क ख कान्तिवृत्त है |
म और त मेष व् तुला राशि के प्रथम बिंदु हैं | आ एक आकाशीय पिंड है |
उ और द विषुवत वृत्त के ध्रुव हैं | प और फ कान्तिवृत्त के ध्रुव हैं | उ आ च विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप है | प आ छ कान्तिवृत्त पर लम्बवत चाप है |
म छ चाप का कोण इस आकाशीय पिंड का भोगांश है |
आ छ चाप का कोण इसका विक्षेप है |
म च चाप का कोण इसका विशुवांश है |
ऊ च चाप का कोण इसकी क्रांति है |
क्षितिज वृत्त (Horizon) – दृष्टा या देखने वाला या प्रेक्षक को जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते हुए दिखाई देते हैं, उसे अनन्त आकाश में फैलाने पर जहाँ वह खगोल या आकाशीय गोले को मिले, वह वृत्त क्षितिज वृत्त कहलाता है |
शिरोबिंदु (Zenith) – प्रेक्षक जहाँ खड़ा हो उसके ठीक सिर के ऊपर जो रेखा पृथ्वी के केंद्र से सिर से होती हुई खगोल को मिले वह बिंदु शिरोबिंदु कहलाता है | यह क्षितिज वृत्त का एक ध्रुव है | यह बिंदु सिर के ऊपर होता है |
अधोबिंदु या पाताल (Nadir) – प्रेक्षक जिस स्थान पर खड़ा हो तब उसके पैरों से और पृथ्वी के केंद्र से होती हुई रेखा खगोल को जिस स्थान पर काटे, वह बिंदु अधोबिंदु कहलाता है | यह ठीक पैर के नीचे होता है | यह क्षितिज वृत्त का दूसरा ध्रुव है |
उद्वृत्त (Vertical) – किसी स्थान के शिरोबिंदु और अधोबिंदु को आकाशीय गोले के ताल पर मिलाने से जो बड़े वृत्त बनते हैं, उन्हें उद्वृत्त कहते हैं | यह क्षितिज वृत्त पर लम्बवत होते हैं |
याम्योत्तर वृत्त (celestial Meridian) – आकाशीय ध्रुवों और प्रेक्षक के शिरोबिंदु से जो वृत्त खगोल पर बनता है, उसे दर्शक का याम्योत्तर वृत्त कहते हैं | यह क्षितिज वृत्त को उत्तर व् दक्षिण बिन्दुओं को लम्बवत काटता है | दक्षिण को यम भी कहते हैं | इस प्रकार जो वृत्त किसी स्थान के दक्षिण से उत्तर तक शिरोबिंदु से होता हुआ जाए वह याम्योत्तर वृत्त हुआ |
उन्नतांश (Altitude) – किसी आकाशीय पिंड की प्रेक्षक के क्षितिज वृत्त से लम्बवत कोणीय ऊंचाई को उन्नतांश कहते हैं अर्थात दर्शक को वह पिंड किस कोण की ऊंचाई पर दिखाई दे रहा है | जिस उद्वृत्त पर वह पिंड है, उस उद्वृत्त को चाप का कोण जो वह पिंड से क्षितिज वृत्त तक बना रही है उसे उन्नतांश कहते हैं |
होरा कोण – पृथ्वी ३६० में अपना एक चक्कर लगाती है अर्थात ३६० =२४ घंटे या १५ = १ घंटा | इस प्रकार हम कह सकते हैं सूर्य १ घंटे में १५ घूमता हैं और कहें तो ४ मिनट में सूर्य १ घूमता है | इस प्रकार सूर्य के अंशों को घंटे में बदलने पर समय का माप आ जाता है | इसलिए यह सूर्य का समय कोण या होरा कोण कहलाता है |
नक्षत्र काल या सम्पात काल (Sidereal Period) – ग्रह या आकाशीय पिंड एक स्थिर तारे के सामने से चलकर पुनः उसी तारे के सामने आने में जितना समय लेता है वह उसका नक्षत्र काल कहलाता है |
युति (Conjunction) – बाह्य ग्रहों और पृथ्वी के मध्य सूर्य हो और ग्रह व् सूर्य दोनों के अंश सामान हों तब ग्रह की युति होती है |
अंतर्युती या निकृष्ट युति (inferior Conjunction) – जब कोई आतंरिक ग्रह (बुध और शुक्र) सूर्य और पृथ्वी के मध्य में हो अर्थात ग्रह के एक ओर सूर्य और दूसरी ओर पृथ्वी हो और सूर्य व् ग्रह दोनों के अंश सामान हों वह उस ग्रह की अंतर्युती होती है |
बहिर्युती (Superior Conjunction) – जब आतंरिक ग्रह और सूर्य दोनों के अंश सामान हों और ग्रह व पृथ्वी के मध्य सूर्य हो तब वह उस ग्रह की बहिर्युती होती है |
चित्र १३
चित्र – १३
विपरीत युति – युति और विपरीत युति बाह्य ग्रहों की ही होती है | इस समय सूर्य और ग्रह के अंशों का अंतर १८० (६ राशि) होता है अर्थात बाह्य ग्रह और सूर्य के मध्य पृथ्वी होती है |
संयुति काल – कोई ग्रह एक प्रकार की युति से चक्कर (अंतर्युती, बहिर्युती या विपरीत युति) पुनः उसी प्रकार की युति तक आने में जितना समय लेता है वह उस ग्रह का संयुति काल कहलाता है |
अब हम फिर से उस श्लोक की चर्चा करेंगे जहाँ से हमने ये अध्याय प्रारंभ किया था |
योजनानि शतान्यष्टो भूकर्णों द्विगुणानि तु |
तद्वर्गतो दशगुणात्पदे भूपरिधिर्भवते ||
अर्थात पृथ्वी का व्यास ८०० के दूने १६०० योजन है, इसके वर्ग का १० गुना करके गुणनफल का वर्गमूल निकालने से जो आता है, वह पृथ्वी कि परिधि है |
यदि पृथ्वी का व्यास ‘व’ मान लिया जाए तो इसकी परिधि = √वx१० = व√१० = वx३.१६२३, जिससे सिद्ध होता है कि परिधि व्यास का ३.१६२३ गुना होती है | आज कल यह सम्बन्ध ३.१४१६ दशमलव के चार स्थानों तक शुद्ध समझा जाता है जो ३.१६२३ से बहुत भिन्न है परन्तु इस से ये नहीं समझना चाहिए कि सूर्यसिद्धांतकार को व्यास और परिधि का ठीक ठीक सम्बन्ध नहीं मालूम था; क्योंकि दूसरे अध्याय में (सूर्य सिद्धांत के) अर्धव्यास और परिधि के अनुपात ३४३८:२१६०० माना गया है जिससे परिधि व्यास का ३.१४१३६ गुना ठहरती है | इसलिए इस श्लोक में परिधि को व्यास का √१०, सुविधा के लिए, गणित की क्रिया को संक्षेप करने के लिए माना गया है | जैसे आज कल जब स्थूल रीति से काम लेना होता है तो कोई इसको २२/७ और कोई इसे ३.१४ मानते हैं और जहाँ बहुत सूक्ष्म गणना करने कि आवश्यकता होती है वहां इसको दशमलव के पांच पांच, सात सात स्थानों तक शुद्ध करना पड़ता है |
अब प्रश्न यह रह गया कि भूपरिधि नापी कैसे गयी ? भास्कराचार्य गोलाध्याय भुवनकोष के १३ वें पृष्ठ के १४ वें श्लोक में बताते हैं कि उत्तर दक्षिण रेखा पर स्थित दो स्थानों की दूरी योजनो में नाप लो | उन दो स्थानों के अक्षांशो का भी अंतर निकाल लो | फिर त्रैराशिक द्वारा यह जान लेना चाहिए कि जब इतने अक्षांशो में अंतर होने से दो स्थानों कि दूरी इतने योजन होती है तब ३६० पर क्या होगी |
इसकी उपपत्ति इस प्रकार है –
चित्र १४चित्र – १४
भ – पृथ्वी का केंद्र                   वभ – विषुवतीय त्रिज्या
उ – उत्तरी ध्रुव या सुमेरू
स, सा – एक ही उत्तर दक्षिण रेखा (Meridian) के दो स्थान
स का अक्षांश = ∆ वभस                सा का अक्षांश = ∆ वभसा
दोनों के अक्षांशों का अंतर = ∆ सभसा
फिर अनुपात निकालें तो
∆ सभसा : ३६० :: ससा : भूपरिधि
अतः भूपरिधि = (३६० x ससा)/ ∆सभसा
भूपरिधि इसी रीति से आज भी निकाली जाती है; केवल सूक्ष्म यंत्रों के कारण अब अधिक शुद्धता पूर्वक यह काम किया जाता है |
अब पृथ्वी कि परिकल्पना के लिए हमारे सिद्धांतों में ऐसा वृत्त लिया गया है, जिसकी त्रिज्या ३४३८ इकाइयाँ और परिधि २१६०० इकाइयाँ होती है जिसमें १-१ इकाई एक एक कला के बराबर होती है | क्योंकि परिधि एक चक्र के सामान होती है जिसमें ३६० अथवा ३६०x६० = २१६०० कलाएं होती है | त्रिज्या का मान ३४३८ इसलिए लिया गया है कि जब परिधि कलाओं में विभाजित की जाती है तब त्रिज्या का मान ३४३७(३/४) कला आज कल कि सूक्ष्म गणना से ठहरता है जिसका निकटतम पूर्णांक ३४३८ है | आजकल के १ रेडियन में जितनी कलाएं होती है उतनी ही पूर्ण कलाओं के सामान त्रिज्या का परिमाण माना गया है |
१ रेडियन = ५७.२९५८ = ३४६७.७४८ कला

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राशिचक्र

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राशिचक्र – सूर्य जिस मार्ग से चलता हुआ आकाश में प्रतीत होता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं | अगर इस कान्तिवृत्त को बारह भागों में बांटा जाये तो हर एक भाग को राशि कहते हैं अतः ऐसा वृत्त जिस पर नौ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं (ज्योतिष में सूर्य को भी ग्रह ही माना गया है ) राशीचक्र कहलाता है | इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं की पृथ्वी के पूरे गोल परिपथ को बारह भागों में विभाजित कर उन भागों में पड़ने वाले आकाशीय पिंडों के प्रभाव के आधार पर पृथ्वी के मार्ग में बारह किमी के पत्थर काल्पनिक रूप से माने गए हैं |
अब हम जानते हैं की एक वृत्त ३६० अंश में बांटा जाता है | इसलिए एक राशी जो राशिचक्र का बारहवां भाग है, ३० अंशों की हुई | यानी एक राशि ३० अंशो की होती है | राशियों का नाम उनकी अंशो सहित इस प्रकार है |
अंश राशी
०-३० मेष
३०-६० वृष
६०-९० मिथुन
९०-१२० कर्क
१२०-१५० सिंह
१५०-१८० कन्या
१८०-२१० तुला
२१०-२४० वृश्चिक
२४०-२७० धनु
२७०-३०० मकर
३००-३३० कुम्भ
३३०-३६० मीन
चित्र १
नक्षत्र – आकाश में तारों के समुदाय को नक्षत्र कहते हैं | आकाश मंडल में जो असंख्य तारिकाओं से कही अश्व, शकट, सर्प, हाथ आदि के आकार बन जाते हैं, वे ही नक्षत्र कहलाते हैं | (जिस प्रकार पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी मीलों में या कोसों में नापी जाती है उसी प्रकार आकाश मंडल की दूरी नक्षत्रों में नापी जाती है |) राशि चक्र ( वह वृत्त जिस पर ९ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं | ) को २७ भागों में विभाजित करने पर २७ नक्षत्र बनते हैं |
पृथ्वी के कुल ३६० कला के परिपथ को नक्षत्रों  के लिए २७ भागों में बांटा गया है ( जैसे राशियों के लिए १२ भागों में बांटा गया है |) अतः प्रत्येक नक्षत्र ३६०/२७ = १३ मिनट २० सेकंड = ८०० अंश  का होगा | इसके उपरान्त भी नक्षत्रों को चार चरणों में बांटा गया है | प्रत्येक चरण १३ मिनट २० सेकंड/ ४ = ३ मिनट २० सेकंड = २०० अंश  का होगा | क्योंकि एक राशि ३० अंश की होती है अतः हम कह सकते हैं कि सवा दो नक्षत्र अर्थात ९ चरण अर्थात ३० अंश की एक राशि होती है |
नक्षत्रों के नाम –
१. अश्विनी                २. भरिणी                   ३. कृत्तिका                          ४. रोहिणी
५. मृगशिरा                ६. आर्द्रा                      ७. पुनर्वसु                            ८. पुष्य
९. आश्लेषा                १०. मेघा                     ११. पूर्वा फाल्गुनी                १२. उत्तरा फाल्गुनी
१३. हस्त                    १४. चित्रा                    १५. स्वाति                           १६. विशाखा
१७. अनुराधा               १८. ज्येष्ठा                १९. मूल                                २०. पूवाषाढा
२१. उत्तराषाढा            २२. श्रवण                  २३. धनिष्ठा                         २४. शतभिषा
२५. पूर्वाभाद्रपद            २६. रेवती
अभिजीत को २८वां नक्षत्र माना गया है | उत्तराषाढ़ की आखिरी १५ घाटियाँ और श्रवण की प्रारंभ की ४ घाटियाँ, इस प्रकार १९ घटियों के मान वाला अभिजीत नक्षत्र होता है | यह समस्त कार्यों में शुभ माना जाता है |
सूक्ष्मता से समझाने के  नक्षत्र के भी ४ भाग किये गए हैं, जो चरण कहलाते हैं | प्रत्येक नक्षत्र का एक स्वामी होता है |
अश्विनी – अश्विनी कुमार                              भरणी – काल                          कृत्तिका – अग्नि
रोहिणी – ब्रह्मा                                              मृगशिरा – चन्द्रमा                   आर्द्रा – रूद्र
पुनर्वसु – अदिति                                            पुष्य – बृहस्पति                      आश्लेषा – सर्प
मघा – पितर                                                   पूर्व फाल्गुनी – भग                 उत्तराफाल्गुनी – अर्यता
हस्त – सूर्य                                                    चित्रा – विश्वकर्मा                    स्वाति – पवन
विशाखा – शुक्राग्नि                                       अनुराधा – मित्र                        ज्येष्ठा – इंद्र
मूल – निऋति                                                पूर्वाषाढ़ – जल                         उत्तराषाढ़ – विश्वेदेव
श्रवण – विष्णु                                                धनिष्ठा – वसु                         शतभिषा – वरुण
पूर्वाभाद्रपद – आजैकपाद                                उत्तराभाद्रपद – अहिर्बुधन्य     रेवती – पूषा
अभिजीत – ब्रह्मा
नक्षत्रों के फलादेश भी स्वामियों के स्वभाव गुण के अनुसार जानना चाहिए |


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राशिचक्र

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राशिचक्र – सूर्य जिस मार्ग से चलता हुआ आकाश में प्रतीत होता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं | अगर इस कान्तिवृत्त को बारह भागों में बांटा जाये तो हर एक भाग को राशि कहते हैं अतः ऐसा वृत्त जिस पर नौ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं (ज्योतिष में सूर्य को भी ग्रह ही माना गया है ) राशीचक्र कहलाता है | इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं की पृथ्वी के पूरे गोल परिपथ को बारह भागों में विभाजित कर उन भागों में पड़ने वाले आकाशीय पिंडों के प्रभाव के आधार पर पृथ्वी के मार्ग में बारह किमी के पत्थर काल्पनिक रूप से माने गए हैं |
अब हम जानते हैं की एक वृत्त ३६० अंश में बांटा जाता है | इसलिए एक राशी जो राशिचक्र का बारहवां भाग है, ३० अंशों की हुई | यानी एक राशि ३० अंशो की होती है | राशियों का नाम उनकी अंशो सहित इस प्रकार है |
अंश राशी
०-३० मेष
३०-६० वृष
६०-९० मिथुन
९०-१२० कर्क
१२०-१५० सिंह
१५०-१८० कन्या
१८०-२१० तुला
२१०-२४० वृश्चिक
२४०-२७० धनु
२७०-३०० मकर
३००-३३० कुम्भ
३३०-३६० मीन
चित्र १
नक्षत्र – आकाश में तारों के समुदाय को नक्षत्र कहते हैं | आकाश मंडल में जो असंख्य तारिकाओं से कही अश्व, शकट, सर्प, हाथ आदि के आकार बन जाते हैं, वे ही नक्षत्र कहलाते हैं | (जिस प्रकार पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी मीलों में या कोसों में नापी जाती है उसी प्रकार आकाश मंडल की दूरी नक्षत्रों में नापी जाती है |) राशि चक्र ( वह वृत्त जिस पर ९ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं | ) को २७ भागों में विभाजित करने पर २७ नक्षत्र बनते हैं |
पृथ्वी के कुल ३६० कला के परिपथ को नक्षत्रों  के लिए २७ भागों में बांटा गया है ( जैसे राशियों के लिए १२ भागों में बांटा गया है |) अतः प्रत्येक नक्षत्र ३६०/२७ = १३ मिनट २० सेकंड = ८०० अंश  का होगा | इसके उपरान्त भी नक्षत्रों को चार चरणों में बांटा गया है | प्रत्येक चरण १३ मिनट २० सेकंड/ ४ = ३ मिनट २० सेकंड = २०० अंश  का होगा | क्योंकि एक राशि ३० अंश की होती है अतः हम कह सकते हैं कि सवा दो नक्षत्र अर्थात ९ चरण अर्थात ३० अंश की एक राशि होती है |
नक्षत्रों के नाम –
१. अश्विनी                २. भरिणी                   ३. कृत्तिका                          ४. रोहिणी
५. मृगशिरा                ६. आर्द्रा                      ७. पुनर्वसु                            ८. पुष्य
९. आश्लेषा                १०. मेघा                     ११. पूर्वा फाल्गुनी                १२. उत्तरा फाल्गुनी
१३. हस्त                    १४. चित्रा                    १५. स्वाति                           १६. विशाखा
१७. अनुराधा               १८. ज्येष्ठा                १९. मूल                                २०. पूवाषाढा
२१. उत्तराषाढा            २२. श्रवण                  २३. धनिष्ठा                         २४. शतभिषा
२५. पूर्वाभाद्रपद            २६. रेवती
अभिजीत को २८वां नक्षत्र माना गया है | उत्तराषाढ़ की आखिरी १५ घाटियाँ और श्रवण की प्रारंभ की ४ घाटियाँ, इस प्रकार १९ घटियों के मान वाला अभिजीत नक्षत्र होता है | यह समस्त कार्यों में शुभ माना जाता है |
सूक्ष्मता से समझाने के  नक्षत्र के भी ४ भाग किये गए हैं, जो चरण कहलाते हैं | प्रत्येक नक्षत्र का एक स्वामी होता है |
अश्विनी – अश्विनी कुमार                              भरणी – काल                          कृत्तिका – अग्नि
रोहिणी – ब्रह्मा                                              मृगशिरा – चन्द्रमा                   आर्द्रा – रूद्र
पुनर्वसु – अदिति                                            पुष्य – बृहस्पति                      आश्लेषा – सर्प
मघा – पितर                                                   पूर्व फाल्गुनी – भग                 उत्तराफाल्गुनी – अर्यता
हस्त – सूर्य                                                    चित्रा – विश्वकर्मा                    स्वाति – पवन
विशाखा – शुक्राग्नि                                       अनुराधा – मित्र                        ज्येष्ठा – इंद्र
मूल – निऋति                                                पूर्वाषाढ़ – जल                         उत्तराषाढ़ – विश्वेदेव
श्रवण – विष्णु                                                धनिष्ठा – वसु                         शतभिषा – वरुण
पूर्वाभाद्रपद – आजैकपाद                                उत्तराभाद्रपद – अहिर्बुधन्य     रेवती – पूषा
अभिजीत – ब्रह्मा
नक्षत्रों के फलादेश भी स्वामियों के स्वभाव गुण के अनुसार जानना चाहिए |


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देवताओं का एक दिन

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तिथि – चन्द्रमा आकाश में चक्कर लगाता हुआ जिस समय सूर्य के बहुत पास पहुच जाता है उस समय अमावस्या होती है | ( जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बिलकुल मध्य में स्थित होता है तब वह सूर्य के निकटतम होता है |) अमावस्या के बाद चंद्रमा सूर्य से आगे पूर्व की ओर बढ़ता जाता है और जब १२० कला  आगे हो जाता है तब पहली तिथि (प्रथमा) बीतती है | १२० से २४० कला का जब अंतर रहता है तब दूज रहती है | २४० से २६० तक जब चंद्रमा सूर्य से आगे रहता है तब तीज रहती है | इसी प्रकार जब अंतर १६८०-१८O० तक होता है तब पूर्णिमा होती है, १८O०-१९२० तक जब चंद्रमा आगे रहता है तब १६ वी तिथि (प्रतिपदा) होती है | १९२०- २O४० तक दूज होती है इत्यादि | पूर्णिमा के बाद चंद्रमा सूर्यास्त से प्रतिदिन कोई २ घडी (४८ मिनट) पीछे निकालता है |
चन्द्र मासों के नाम इस प्रकार हैं – चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष या मृगशिरा, पौष, माघ और फाल्गुन |
देवताओं का एक दिन –  मनुष्यों के एक वर्ष को देवताओं के एक दिन माना गया है । उत्तरायण तो उनका दिन है और दक्षिणायन रात्रि । पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर देवताओं के रहने का स्थान तथा दक्षिणी ध्रुव पर राक्षसों के रहने का स्थान बताया गया है | साल में २ बार दिन और रात सामान होती है | ६ महीने तक सूर्य विषुवत के उत्तर और ६ महीने तक दक्षिण रहता है | पहली छमाही में उत्तरी गोल में दिन बड़ा और रात छोटी तथा दक्षिण गोल में दिन छोटा और रात बड़ी होती है | दूसरी छमाही में ठीक इसका उल्टा होता है | परन्तु जब सूर्य विषुवत वृत्त के उत्तर रहता है तब वह उत्तरी ध्रुव (सुमेरु पर्वत पर) ६ महीने तक सदा दिखाई देता है और दक्षिणी ध्रुव पर इस समय में नहीं दिखाई पड़ता | इसलिए इस छमाही को देवताओ का दिन तथा राक्षसों की रात कहते हैं  | जब सूर्य ६ महीने तक विषुवत वृत्त के दक्षिण रहता है तब उत्तरी ध्रुव पर देवताओं को नहीं दिख पड़ता और राक्षसों को ६ महीने तक दक्षिणी ध्रुव पर बराबर दिखाई पड़ता है | इसलिए हमारे १२ महीने देवताओं अथवा राक्षसों के एक अहोरात्र के समान होते हैं |
देवताओं का १ दिन (दिव्य दिन) = १ सौर वर्ष
दिव्य वर्ष – जैसे ३६० सावन दिनों से एक सावन वर्ष की कल्पना की गयी है उसी प्रकार ३६० दिव्य दिन का एक दिव्य वर्ष माना गया है | यानी ३६० सौर वर्षों का देवताओं का एक वर्ष हुआ | अब आगे बढ़ते हैं |
१२०० दिव्य वर्ष = १ चतुर्युग = १२०० x ३६० = ४३२००० सौर वर्ष
चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं | चतुर्युग के दसवें भाग का चार गुना सतयुग (४०%), तीन गुना (३०%) त्रेतायुग, दोगुना (२०%) द्वापर युग और एक गुना (१०%) कलियुग होता है |
अर्थात १ चतुर्युग (महायुग) = ४३२०००० सौर वर्ष
१ कलियुग = ४३२००० सौर वर्ष
१ द्वापर युग = ८६४६०० सौर वर्ष
१ त्रेता युग = १२९६००० सौर वर्ष
१ सतयुग = १७२८००० सौर वर्ष
जैसे एक अहोरात्र में प्रातः और सांय दो संध्या होती हैं उसी प्रकार प्रत्येक युग के आदि में जो संध्या होती है उसे आदि संध्या और अंत में जो संध्या आती है उसे संध्यांश कहते हैं | प्रत्येक युग की दोनों संध्याएँ उसके छठे भाग के बराबर होती हैं इसलिए एक संध्या (संधि काल ) बारहवें भाग के सामान हुई | इसका तात्पर्य यह हुआ कि
कलियुग की आदि व अंत संध्या =  ३६०० सौर वर्ष  वर्ष
द्वापर की आदि व् अंत संध्या =  ७२००० सौर वर्ष
त्रेता युग की आदि व अंत संध्या = १०८००० सौर वर्ष
सतयुग की आदि व अंत संध्या = १४४००० सौर वर्ष
अब और आगे बढ़ते हैं |
७१ चतुर्युगों का एक मन्वंतर होता है, जिसके अंत में सतयुग के समान संध्या होती है | इसी संध्या में जलप्लव् होता है | संधि सहित १४ मन्वन्तरों का एक कल्प होता है, जिसके आदि में भी सतयुग के समान एक संध्या होती है, इसलिए एक कल्प में १४ मन्वंतर और १५ सतयुग के सामान संध्या हुई |
अर्थात १ चतुर्युग में २ संध्या
१ मन्वंतर = ७१ x ४३२०००० = ३०६७२०००० सौर वर्ष
मन्वंतर के अंत की संध्या = सतयुग की अवधि = १७२८००० सौर वर्ष
= १४ x ७१ चतुर्युग + १५ सतयुग
= ९९४ चतुर्युग + (१५ x ४)/१० चतुर्युग (चतुर्युग का ४०%)
= १००० चतुर्युग = १००० x १२००० = १२०००००० दिव्य वर्ष
= १००० x ४३२०००० = ४३२००००००० सौर वर्ष
ऐसा मनुस्मृति में भी मिलता है किन्तु आर्यभट की आर्यभटीय के अनुसार
१ कल्प = १४ मनु (मन्वंतर)
१ मनु = ७२ चतुर्युग
और आर्यभट्ट के अनुसार
१४ x ७२ = १००८ चतुर्युग = १ कल्प
जबकि सूर्य सिद्धांत से १००० चतुर्युग = १ कल्प
जो की ब्रह्मा के १ दिन के बराबर है | इतने ही समय की ब्रह्मा की एक रात भी होती है | इस समय ब्रह्मा की आधी आयु बीत चुकी है, शेष आधी आयु का यह पहला कल्प है | इस कल्प के संध्या सहित ६ मनु बीत गए हैं और सातवें मनु वैवस्वत के २७ महायुग बीत गए हैं तथा अट्ठाईसवें महायुग का भी सतयुग बीत चूका है |
इस समय २०१३ में कलियुग के ५०४७ वर्ष बीते हैं |
महायुग से सतयुग के अंत तक का समय = १९७०७८४००० सौर वर्ष
यदि कल्प के आरम्भ से अब तक का समय जानना हो तो ऊपर सतयुग के अंत तक के सौर वर्षों में त्रेता के १२८६००० सौरवर्ष, द्वापर के ८६४००० सौर वर्ष तथा कलियुग के ५०४७ वर्ष और जोड़ देने चाहिए |
बीते हुए ६ मन्वन्तरों के नाम हैं – (१) स्वायम्भुव (२) स्वारोचिष (३) औत्तमी  (४) तामस  (५) रैवत   (६) चाक्षुष | वर्तमान मन्वंतर का नाम वैवस्वत है | वर्तमान कल्प को श्वेत कल्प कहते हैं, इसीलिए हमारे संकल्प में कहते हैं –
प्रवर्तमानस्याद्य ब्राह्मणों द्वितीय प्रहरार्धे श्री श्वेतवराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे ……………बौद्धावतारे वर्तमानेस्मिन वर्तमान संवत्सरे अमुकनाम वत्सरे अमुकायने अमुक ऋतु अमुकमासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे संयुक्त चन्द्रे …. ….. तिथौ ………
एक सौर वर्ष में १२ सौर मास तथा ३६५.२५८५ मध्यम सावन दिन होते हैं परन्तु १२ चंद्रमास ३५४.३६७०५ मध्यम सावन दिन का होता है, इसलिए १२ चंद्रमासों का एक वर्ष सौर वर्ष से १०.८९१७० मध्यम सावन दिन छोटा होता है | इसलिए कोई तैंतीस महीने में ये अंतर एक चंद्रमास के समान हो जाता है | जिस सौर वर्ष में यह अंतर १ चंद्रमास के समान हो जाता है उस सौर वर्ष में १३ चंद्रमास होते हैं | उस मास को अर्धमास या मलमास कहा जाता है | यदि ऐसा न किया जाये तो चंद्रमास के अनुसार मनाये जाने वाले त्यौहार पर्व इत्यादि भिन्न भिन्न ऋतुओं में मुसलमानी त्यौहारों की तरह भिन्न भिन्न ऋतुओं में पड़ने लगे |
किस घंटे (होरा) का स्वामी कौन ग्रह है यह जानने के लिए वह क्रम समझ लेना चाहिए जिस क्रम से घंटे के स्वामी बदलते हैं | शनि ग्रह पृथ्वी से सब ग्रहों से दूर है, उस से निकटवर्ती बृहस्पति है, बृहस्पति से निकट मंगल, मंगल से निकट सूर्य, सूर्य से निकट शुक्र, शुक्र से निकट बुध और बुध से निकट चंद्रमा है | इसी क्रम से होरा के स्वामी बदलते हैं | यदि पहले घंटे का स्वामी शनि है तो दूसरे घंटे का स्वामी बृहस्पति, तीसरे घंटे का स्वामी मंगल, चौथे का सूर्य, पांचवे का शुक्र, छठे का बुध, सातवें का चन्द्रमा, आठवें का फिर शनि इत्यादि क्रमानुसार हैं | परन्तु जिस दिन दिन पहले घंटे का स्वामी शनि होता है उस दिन का नाम शनिवार होना चाहिए | इसलिए शनिवार के दूसरे घंटे का स्वामी बृहस्पति, तीसरे घंटे का स्वामी मंगल इत्यादि हैं | इस प्रकार सात सात घंटे के बाद स्वामियों का वही क्रम फिर आरम्भ होता है | इसलिए शनिवार के २२वें घंटे का स्वामी शनि, २३वें का बृहस्पति, २४वें का मंगल और २४वें के बाद वाले घंटे का स्वामी सूर्य होना चाहिए | परन्तु यहाँ २५वां घंटा अगले दिन का पहला घंटा है जिसका स्वामी सूर्य है इसलिए शनिवार के बाद रविवार आता है | इसी प्रकार रविवार के २५वें घंटे यानी अगले दिन के पहले घंटे का स्वामी चन्द्रमा होगा इसलिए उसे चंद्रवार या सोमवार कहते हैं | इसी प्रकार और वारों का नामकरण हुआ है |
इससे यह स्पष्ट होता है कि शनिवार के बाद रविवार और रविवार के बाद सोमवार और सोमवार के बाद मंगलवार क्यों होता है | शनि से रवि चौथा ग्रह है और रवि से चौथा ग्रह है और रवि से चंद्रमा चौथा ग्रह है अतः प्रत्येक दिन का स्वामी उसके पिछले दिन के स्वामी से चौथा ग्रह है |
मैटोनिक चक्र – मिटन ने ४३३ ई.पू. में देखा कि २३५ चंद्रमास और १९ सौर वर्ष अर्थात १९x१२ = २२८ सौर मासों में समय लगभग समान होता है, इनमें लगभग १ घंटे का अंतर होता है |
१९ सौर वर्ष = १९ x ३६५.२५ = ६९३९.७५ दिवस
२३५ चन्द्र मास = २३५x२९.५३१ = ६९३९.७८५ दिवस
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक १९ वर्ष में २२८ सौर मास और लगभग २३५ चन्द्र मास होते हैं अर्थात ७ चन्द्र मास अधिक होते हैं | चन्द्र और सौर वर्षों का अगर समन्वय नहीं करे तब लगभग ३२.५ सौर वर्षों में, ३३.५ चन्द्र वर्ष हो जायेंगे | अगर केवल चन्द्र वर्ष से ही चलें तब अगर दीपावली नवम्बर में आती है तब १९ वर्षों में यह ७ मास पहले अर्थात अप्रेल में आ जाएगी और इन धार्मिक त्यौहारों का ऋतुओं से कोई सम्बन्ध नहीं रह जायेगा | इसलिये भारतीय पंचांग में इसका ख्याल रखा जाता है |
क्षयमास – मलमास या अधिमास की भांति क्षयमास भी होता है | सूर्य की कोणीय गति नवम्बर से फरवरी तक तीव्र हो जाती है और इसकी इसकी संक्रांतियों के मध्य समय का अंतर कम हो जाता है | इन मासों में कभी कभी जब संक्रांति से कुछ मिनट पहले ही अमावस्या का अंत हुआ हो, तब मास का क्षय हो जाता है |
जिस चंद्रमास (एक अमावस्या के अंत से दूसरी अमावस्या के अंत तक) में दो संक्रांतियों आ जाएँ, उसमें एक मास का क्षय हो जाता है | यह कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष और माघ इन चार मास में ही होता है अर्थात नवम्बर से फरवरी तक ही हो सकता है |
अब संक्षिप्त में राशियों  और नक्षत्रों के बारे में चर्चा करते हैं ताकि आगे जब ग्रहों और नक्षत्रों के बारे में कोई सन्दर्भ आये तो हमें उसमें कोई उलझन न हो |

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