*क्या है विष योग और 12 भावो में इसका शुभ अशुभ फल*
आज हम जानेंगे पंडित चन्द्र कान्त शुक्ल से कुंडली मे होने वाले विष योग के बारे में। फलदीपिका ग्रंथ के अनुसार कुंडली मे शनि ग्रह आयु, मृत्यु, भय, दुख, अपमान, रोग, दरिद्रता, दासता, बदनामी, विपत्ति, निन्दित कार्य, नीच लोगों से सहायता, आलस, कर्ज, लोहा, कृषि उपकरण तथा बन्धन का विचार शनि ग्रह से करते है।
वही शनि के विपरीत चंद्रमा एक शुभ परन्तु निर्बल ग्रह है। चन्द्रमा एक राशि का संक्रमण केवल 2 से 2½ दिन में पूरा कर लेता है। चन्द्रमा के कार्यकाल में मन की स्थिति, माता का सुख, सम्मान, सुख-साधन, मीठे फल, सुगन्धित फूल, कृषि, यश, मीठे, कांसा, चांदी, चीनी, दूध, कोयला, वस्त्र, तरल पदार्थ, स्त्री का सुख आदि आते हैं।
चन्द्रमा मन का कारक है और शनि का कारक तत्व दुखदाई है। अत: शनि-चन्द्र की युति मन को विचलित व दुखी करने वाली होती है। शनि के चन्द्रमा से अधिक अंश या अगली राशि में होने पर जातक अपयश का भागी होता है। सभी ज्योतिष ग्रंथों में शनि चन्द्र की युति का फल अशुभ कहा गया है। अशुभ फलादेश के कारण इस युति को विष योग की संज्ञा दी गई है। विष योग का अशुभ फल जातक को चन्द्रमा और शनि की दशा में उनके बलानुसार अधिक मिलता है। कष्टक शनि, अष्टम शनि तथा साढ़ेसाती कष्ट बढ़ाती है।
कुण्डली के जिस भाव में विष योग स्थित होता है, उस भाव संबंधी कष्ट मिलते हैं। नजदीकी परिवारजन स्वयं दुखी रहकर विश्वासघात करते हैं। जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं और वह आर्थिक तंगी के कारण कर्ज से दबा रहता है। जीवन में सुख नहीं मिलता। जातक के मन में संसार से विरक्ति का भाव जागृत होता है और वह अध्यात्म की ओर अग्रसर होता है।
*विभिन्न भावों में विष योग का फल इस प्रकार होता है* -
प्रथम भाव (लग्न) में- इस योग के कारण माता के बीमार रहने या उसकी मृत्यु से किसी अन्य स्त्री (बुआ अथवा मौसी) द्वारा उसका बचपन में पालन-पोषण होता है। उसे सिर और स्नायु में दर्द रहता है। शरीर रोगी तथा चेहरा निस्तेज रहता है। आर्थिक सम्पन्नता नहीं होती। नौकरी में पदोन्नति देरी से होती है। विवाह देर से होता है।
द्वितीय भाव में- घर के मुखिया की बीमारी या मृत्यु के कारण काााटटबचपन ता रहती है। वह कंजूस होता है। धन कमाने के लिए उसे कठिन परिश्रम करना पड़ता है। जीवन के उत्तराद्र्ध में आॢथक स्थिति ठीक रहती है। दांत, गला एवं कान में बीमारी की संभावना रहती है।
तृतीय भाव में- जातक की शिक्षा अपूर्ण रहती है। वह नौकरी से धन कमाता है। भाई-बहनों के साथ संबंध में कटुता आती है। नौकर विश्वासघात करते हैं। यात्रा में विघ्न आते हैं। श्वास के रोग होने की संभावना रहती है।
चतुर्थ भाव में- माता के सुख में कमी अथवा माता से विवाद रहता है। जन्म स्थान छोड़ना पड़ता है। मध्यम आयु में आय कुछ ठीक रहती है, परन्तु अन्तिम समय में फिर से धन की कमी हो जाती है। स्वयं दुखी व दरिद्र होकर दीर्घ आयु पाता है। उसके मृत्योपरान्त ही उसकी संतान का भाग्योदय होता है।
पंचम भाव में- विष योग होने से शिक्षा प्राप्ति में बाधा आती है। वैवाहिक सुख अल्प रहता है। संतान देरी से होती है या संतान मंदबुद्धि होती है। स्त्री राशि में कन्याएं अधिक होती हैं। संतान से कोई सुख नहीं मिलता।
षष्ठम भाव में- जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं। ननिहाल पक्ष से सहायता नहीं मिलती। व्यवसाय में प्रतिद्वंद्वी हानि करते हैं। घर में चोरी की संभावना रहती है।
सप्तम भाव में- स्त्री की कुंडली में विष योग से पहला विवाह देर से होकर टूटता है और दूसरा विवाह करती है। पुरुष की कुंडली में यह युति विवाह में अधिक विलम्ब करती है। पत्नी अधिक उम्र की या विधवा होती है। संतान प्राप्ति में बाधा आती है। दाम्पत्य जीवन में कटुता और विवाद के कारण वैवाहिक सुख नहीं मिलता।
अष्टम भाव में- दीर्घकालीन शारीरिक कष्ट और गुप्त रोग होते हैं। टांग में चोट अथवा कष्ट होता है। जीवन में कोई विशेष सफलता नहीं मिलती। उम्र लंबी रहती है। अंत समय कष्टकारी होता है।
नवम भाव में- भाग्योदय में रुकावट आती है। कार्यों में विलंब से सफलता मिलती है। यात्रा में हानि होती है। ईश्वर में आस्था कम होती है। कमर व पैर में कष्ट रहता है। जीवन अस्थिर रहता है। भाई-बहन से संबंध अच्छे नहीं रहते।
दशम भाव में- पिता से संबंध अच्छे नहीं रहते। नौकरी में परेशानी तथा व्यवसाय में घाटा होता है। पैतृक संपत्ति मिलने में कठिनाई आती है। आॢथक स्थिति अच्छी नहीं रहती। वैवाहिक जीवन भी सुखी नहीं रहता।
एकादश भाव में- बुरे दोस्तों का साथ रहता है। किसी भी कार्य में लाभ नहीं मिलता। संतान से सुख नहीं मिलता। जातक का अंतिम समय बुरा गुजरता है। बलवान शनि सुखकारक होता है।
द्वादश स्थान में- जातक निराश रहता है। उसकी बिमारियों के इलाज में अधिक समय लगता है। जातक व्यसनी बनकर धन का नाश करता है। अपने कष्टों के कारण वह कई बार आत्महत्या तक करने की सोचता है।
*उपाय*
शिव जी शनि देव के गुरु हैं और चन्द्रमा को अपने सिर पर धारण करते हैं। अत: विष योग के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए देवों के देव महादेव शिव की आराधना व उपासना करनी चाहिए। सुबह स्नान करके प्रतिदिन थोड़ा सरसों का तेल व काले तिल के कुछ दाने मिलाकर शिवलिंग का जलाभिषेक करते हुए ऊं नम: शिवाय का उच्चारण करना चाहिए। उसके बाद कम से कम एक माला महामृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए।
शनिवार को शनि देव का संध्या के समय तेलाभिषेक करने के बाद गरीब, अनाथ एवं वृद्धों को उड़द की दाल और चावल से बनी खिचड़ी का दान करना चाहिए।
ऐसे व्यक्ति को रात के समय दूध व चावल का उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे चंद्रमा और निर्बल हो जाता है।