कानपुर मेस्टन रोड इतिहास
देश में लोकतंत्र कायम है। लेकिन राजनीतिक
दलों में लोकतंत्र कब आएगा? क्या हसरत मोहानी के गुजर जाने के कोई 60 साल
बाद भी कांग्रेस इस बात की गारंटी ले सकती है कि वहां किसी हसरत मोहानी को
सिर्फ इस बात पर हाशिए पर नहीं डाल दिया जाएगा कि उसने पार्टी के सबसे बड़े
नेता से अलग हटकर कुछ ऐसा सोचने की कोशिश की, जिसका पूरे समाज पर असर पड़
सकता है। महात्मा गांधी ने भले बरसों बाद अपनी जीवनी में हसरत मोहानी को
पूर्ण स्वराज्य की मांग करने वाला पहला शख्स बताकर अपना दिल हल्का करने की
कोशिश की हो, लेकिन कांग्रेस के आभामंडल की रोशनी में लिखे गए ज्यादातर
इतिहास में न सिर्फ पूर्ण स्वराज्य बल्कि स्वदेशी आंदोलन को भी महात्मा
गांधी से ही जोड़कर देखा जाता रहा है। बाल गंगाधर तिलक को हसरत मोहानी अपना
उस्ताद मानते थे और इंक़लाब ज़िंदाबाद नारे को भी हसरत मोहानी से ही
जोड़कर देखा जाता है। और इस बात के तो सबूत है कि – सरफरोशी की तमन्ना अब
हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजू ए क़ातिल में है – तराना हसरत
मोहानी की क़लम से निकला, लेकिन राम प्रसाद बिस्मिल के नाम दर्ज़ हो चुके
इस तराने को लिखने के लिए मोहानी को उनका असली हक़ दिलवाने की पहल कौन
करेगा? इस्तेमाल तो मशहूर निर्देशक बी आर चोपड़ा ने उनकी ग़ज़ल भी अपनी
फिल्म में बिना किसी इजाज़त के ही कर ली थी, और इसके लिए उन्हें इलाहाबाद
हाईकोर्ट में मुकदमे का सामना भी करना पड़ा। लेकिन, सरकार पर कौन मुकदमा
करे, जिसने बस कानपुर की मेस्टन रोड का नाम हसरत मोहानी मार्ग करके अपनी
जिम्मेदारी से निज़ात पा ली।ना हसरत के गांव मोहान में उनकी कोई निशानी है। ना अलीगढ़ के रसलगंज में, जबकि अलीगढ़ में ही हसरत मोहानी ने अपने दम खम रिसाला निकालकर अंग्रेजों से मुचैटा संभाला था। वो खुद ही लिखते और खुद ही पुरानी सी मशीन पर अखबार छापते। उस ज़माने में डेढ़ सौ रुपये महीना इनायत को हसरत मोहानी ने ठोकर मार दी थी। कॉलेज से भी निकाले गए लेकिन लोगों के दिलो दिमाग में वो घर बसाए रहे। और तो और उत्तर प्रदेश की जिस राजधानी में लगे पुतले गरीबों को मज़ाक उड़ाते नज़र आते हैं, उस शहर में भी हसरत मोहानी की कब्र तलाशने में पूरा एक दिन निकल गया। पुराने लखनऊ के बाग ए अनवार में उनकी कब्र के पास ही एक मज़ार पर भूतों और जिन्नात को भगाने का सिलसिला पूरे साल चलता है। पूरे मुल्क से लोग यहां आते हैं, लेकिन इनमें से भी किसी को नहीं मालूम कि इसी अहाते में एक ऐसा शख्स सोया है, जिसने अपने लेखों से अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी।
और केवल हसरत ही नहीं उनकी पत्नी के साथ भी इतिहास ने काफी नाइंसाफी की। हसरत मोहानी की पत्नी निशात उन निशां आम घरों की पहली मुस्लिम औरत थीं, जिसने बुर्का पीछे छोड़कर आज़ादी की जंग में शिरकत की। जेल में हसरत की हिरासत के दौरान अपने शौहर के नक्शे कदम पर चलते हुए निशात बेगम ने उन्हें हौसला दिया और उनकी गैर मौजूदगी में स्वदेशी सेंटर भी संभाला। ताज्जुब की बात ये है कि इस बहादुर महिला को भी हसरत मोहानी की तरह इतिहासकारों ने भुला दिया। उनका इकलौता फोटो तक भारत के किसी संग्रहालय में नहीं दिखता और खुद हसरत मोहानी के घर वाले बेगम निशात उन निशां का फोटो लंदन की एक लाइब्रेरी से भारत लाए।
सादगी को सिरमौर बनाने वाले हसरत मोहानी हो सकता है कि आज के सियासी माहौल में भी फिट नहीं बैठते। क्योंकि वह पहले शख्स थे जो आज़ाद हिंदुस्तान में सांसदों को मिलने वाली खास सहूलियतों के खिलाफ़ सबसे पहले उठ खड़े हुए। तब तो खैर सांसदों को पचहत्तर रुपये ही भत्ता मिलता था। हमेशा रेलवे के तीसरे दर्जे में सफर करने वाले हसरत ने कभी सरकारी आवास तक का इस्तेमाल नहीं किया। अगर देश की नौजवान पीढ़ी को सियासत से जोड़ना है तो आज की सियासी पार्टियों को हसरत मोहानी जैसे लोगों को और करीब से जानने और समझने की ज़रूरत है। हसरत मोहानी जैसे नेताओं के बारे में नए सिरे से शोध की ज़रूरत है और तब शायद दूसरे नेताओं की बनिस्बत कम मशहूर आज़ादी के ऐसे अनोखे सिपाहियों के बारे में आज की पीढ़ी को भी कुछ जानने को मिलेगा और सियासत को मिलेंगे कुछ नए नायक। और तभी शायद पूरी हो सकेगी वो इबारत जो हसरत मोहानी ने बरसों पहले लिख दी थी - हज़ार खौफ़ हों पर ज़ुबां हो दिल की रफ़ीक़, यही रहा है अजल से कलंदरों का तरीक़।
फोटो परिचय: पुराने लखनऊ के बाग ए अनवार में मौलाना हसरत मोहानी की कब्र। पत्थर पर लिखे शेर का मजमून ये है -
जहान ए शौक में मातम बपा है मर्ग हसरत का।
वो वजह पारसा उसकी, वो इश्क़ पाक़बाज़ उसका।
(पंकज शुक्ल के ब्लॉग क़ासिद से साभार)
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