जिंदगी की रेल से मौत के सफर तक एक मजदूर की कहानी
बेशक जिंदगी चलती का नाम गाड़ी है लेकिन अगर यही गाड़ी किसी कारणवश कही जिंदगी गाड़ी रुक जाए तो जीना मुश्किल सा लगता है
लेकिन कहते हैं कि समय बड़ा बलवान होता है और समय को देख कर कौन आया है ।यह भी सब जानते हैं कि कब रुकी हुई सी गाड़ी है सरपट दौड़ने लगे और कब दौड़ती हुई गाड़ी अचानक बंद हो जाए ।
कहना गलत ना होगा कि सबको जीवन में एक मौका अपनी भूल सुधारने का जरूर मिलता है लेकिन कभी-कभी यही मोके कड़े अनुभव भी दे जाते हैं ।
रोती हुई मां को यह कहकर अकेले छोड़कर परदेस चले जाना कि मुझे अपने जीवन को बेहतर बनाना है इस गांव और घर से जो संभव नहीं है लेकिन समय पलटा और उसी जीवन को चलाते रहने के लिए वापस उसी माता-पिता और गांव ही एक मात्र जरिया रह गया ।
क्या यह प्रकृति द्वारा दिया गया संदेश है अगर है तो शायद जो समझ गया वह अपनी माटी से दूर ना जा पाए। लेकिन मानव स्वभाव ऐसा है कि कोई एक ठोकर खाकर देख कर चलने लगता है और कोई लाख ठोकरे खा कर उसको अपनी किस्मत मान लेता है ।
लेकिन सत्य वह होता है जिसे एक बार में ही पहचान लिया जाए औऱ उस पर फिर आगे ना चला जाए। मौजूदा समय में अगर कोई सबसे ज्यादा हैरान परेशान हुआ है तो वैसा मजदूर ,रोज कमाने खाने वाला वर्ग ।
लेकिन वक्त की मार जब पड़ती है तो ना गरीब न अमीर बल्कि सभी उसका शिकार हो जाते हैं ।
मौजूदा वक्त कुछ ऐसा आया कि सभी एक साथ उस कालचक्र के चक्रव्यूह में फंस गए । सबसे शक्तिशाली देश का दंभ भरने वाला देश भी घुटनों पर आ गया ।मौतों के नित नए आंकड़ों ने यह साबित कर दिया कि अब कमाना उतना जरूरी नहीं रहा जितना जरूरी है जीना।
अगर इस काल चक्र के चक्कर से बाहर निकल आए तो जीवन वरना शायद मातम मनाने के लिए भी अपने ना आए ।यही सोचकर प्रवासी मजदूर जो ना जाने कितने सपने लेकर दूसरे राज्यों में गए और वहां रह कर जीवन यापन करने लगे अपनी जिंदगी गुजार रहे थे।
लेकिन कोरोना महामारी के चलते जिंदगी रुक सी गई ।ऐसे मजदूर सड़कों और बाजारों के बंद होने पर जब थक कर सो जाते थे तो लोग यही कहते थे कि नींद सुकून की है। लेकिन वही मजदूर जब बेबस बेरोजगार और बेचैन हो गया तो उसके लिए अपनी माटी और अपने लोग ही याद आए और अपनों की याद में वह बेबस बेचैन मजदूर सैकड़ों किलोमीटर का सफर पैदल ही तय करने लगा। सभी आश्चर्य में थे लेकिन को रोना महामारी किसी को भी मदद के लिए आगे भी नहीं आने दे रही थी। खाना तो सब खिला देते थे लेकिन उनकी तकलीफ कोई कम नहीं कर सकता था।सैकड़ों मील दूर बैठे अपना परिवार उसे चुंबक की तरह खींच रहा था और वह पैरों पर पड़े छाले और टूटी चप्पल भी उसका रास्ता नहीं रोक पा रही थी ।
शायद जिंदगी चलती का नाम गाड़ी थी और उसी गाड़ी को चलाते रहना भी जरूरी था।
भले ही भूखा रहना पड़े और इस लाचारी और बेबसी की चादर ओढ़ कर निकले न जाने कितने मजदूर घर जाने के लिए बीच रास्ते में ही मौत की चादर ओढ़ कर सो गए।
मजदूर शायद इतना मजबूर कभी नहीं हुआ था वहीं गरीब जरूर था लेकिन स्वाभिमानी भी था। तभी तो कड़ी धूप हो या सर्द रातें ,वह कभी मेहनत करने से पीछे नहीं हटा ।मेहनत से कमाने के लिए ही वह अपनी मां और गांव को छोड़ कर गया था । अपनी जमीन और अपनों के पास लौटने की आस न जाने कितने मजदूरों की बीच रास्ते मे ही टूट गई ।जब वो मज़दूर काल के गाल में समा गए । यह समय ऐसा था ना जो पहले कभी आया था और हम शायद ऐसा समय दोबारा देख पाएं ।भविष्य में आने वाली पीढ़ी किताबों में पढ़कर भी उस पीड़ा, बेबसी और उस दर्द को समझ पाए, कि कैसे एक साथ 16 मजदूर रेल की पटरी पर हमेशा के लिए सो गए ।
बेशक 4 दिन समाचारों की सुर्खियां बन कर सरकार द्वारा मुआवजा मिलने तक हम सब भूल जाएंगे। लेकिन वास्तव में यह दुर्घटना थी या कुछ और।
बेबसी बेरोजगारी और भूख फिर सैकड़ों मील पैदल चलना थककर रेल पटरी पर एक साथ सोना और ट्रेन आने के बाद किसी की भी नींद ना खुलना एक आश्चर्य की बात थी।
क्या यह सब ऐसी पीड़ा को लेकर घर वापसी कर रहे थे जिसके वहां पहुंच कर भी उन्हें शायद भुखमरी और बेरोजगारी का डर था।
क्या वह सब इतना हताश हो चुके थे कि भविष्य में सुनहरे आकाश में जो चमकते हुए सितारे उन्होंने देख रखे थे उन सबको घने काले बादलों ने घेर लिया था।
क्या उनका अंतः करण और आत्मविश्वास उनको कहीं ना कहीं मजबूर कर चुका था कि जिस जिद में वह घर छोड़ आए थे अब वही घर तुम्हें याद आया ।
क्या जिंदगी की पटरी पर जो गाड़ी चलाने के लिए वह घर से चले थे उसी पटरी पर नींद लेते हुए मौत की ट्रेन में सवार होकर चले गए ।
सवाल कई हैं लेकिन जवाब एक ही है मजदूर भाई इतना मजबूर बेबस लाचार कभी नहीं हुआ जितना को रोना काल के चक्रव्यूह में फंसकर हो गया।
सोचने वाली अंतिम बात यह भी है कि मजदूरों के सर पर छत न थी जेब में पैसे और पेट भी भूखा और निकल पड़े सैकड़ों मील के सफर पर।
वही जिनके सर पर छत ,बैंक में पैसे और पेट भरा हुआ उन्हें घर में रहने में तकलीफ हो रही थी । असल में तकलीफ किस को थी ये तो तकलीफ भूख और बेबसी में जी कर ही समझा जा सकता है।
महामारी के चक्कर में मजदूर खाली पेट सो जाएगा
उसे सपने आते हैं कि भोजन कहां से आएगा
भूख हवा खाने से और प्यास पानी की दो बूंद से मर जाती है और रातें अपनों से मिलने के सपने में भी कट जाती हैं
दे रहे हो खाना तुम लेकिन रोटी थोड़ी सुखी है
थोड़ी इज्जत से देना साहब बेटी कल से भूखी है
चाहे रोटी का एक टुकड़ा दे दो या पानी की दो बूंदे हैं
थकान से दिमाग भी खुश होगा और दिल भी मुस्कुराएगा
और
समय भी यही सिखाता है कि जब वक्त बागी हो जाए तो काम अपने और अपनी माटी ही आती है