Monday, July 25, 2011

बे -औलाद



बे -औलाद
औलाद होना ज्यादा अच्छा होता है या बे औलाद होना ?ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब हर इन्सान औलाद होना ज्यादा अच्छा होना बताता है .क्योंकि कोई कहता है जिसके घर में औलाद नहीं उसकी वंश वृद्धी ही नहीं होती है या उसके पास कुछ नहीं ,...
समाज और परिवार वाले भी कहते है की संतान सुख भी बड़े किस्मत वालो को मिलता है और संतान के चक्कर में न जाने कितने लोग नीम हाकिम और बाबाओ के यहाँ चक्कर लगाते रहते है ...और अपना सब कुछ लूटने को आतुर रहते है और न जाने कितने लुटा भी चुकते है ...
क्या औलाद होने में ज्यादा सुख है या फिर बे औलाद होने पर मेरे हिसाब से आज की परिस्थित देख कर यही कहा जायेगा की बेऔलाद होना ही सबसे अच्छा है ...लेकिन मेरे हिसाब से दोनों के खुशी और गम के पल लगभग बराबर है या यु कहे की अगर तराजू से बेऔलाद स्त्री और एक औलाद वाली स्त्री के दुःख और सुख को तौला जाय तो लगभग बराबर ही निकलेंगे .. इस पर आप लोगो को आश्चर्य भी होगा लेकिन जैसे कैसे मेरा लेख पड़ते जायेंगे वैसे वैसे आपको समझ आता जायेगा की मेराकहानी का अर्थ क्या है /..
सबसे पहले बात करते है जिनके की संतान है या फिर ये भी कह सकते है की जिन्हे माँ बाप कहने का गौरव् प्राप्त है .." गौरव " बड़ा ही अच्छा शब्द है ये जब लोग कहते है ...लेकिन यही शब्द की " माँ बाप कहने का गौरव् प्राप्त है" एक दिन श्राप के सामान लगने लगता है ...कैसे मैं ये अंत में बताऊंगा ...
जब एक स्त्री को ये मालूम पड़ता है की वो माँ बनाने वाली है तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं होता है ..और साथ ही परिवार वालो का भी सभी उस खुशी के आने का इंतज़ार करने लगते है .... और जो स्त्री माँ बनाने जा रही होती है उसको इन दिनों काफी तकलीफों और समस्याओ का सामना करना पड़ता है ..और जब बच्चे का जन्म होता है तब भी माँ को तकलीफों का सामना करना पड़ता है ..और ये पीड़ा कुछ ऐसी होती है की हर स्त्री इस पीड़ा का आभास करना चाहती है ..और जो नहीं कर पाती उन्हे इस समाज में बेऔलाद कहा जाता है ..और उन्हे लगता भी है की उनके साथ ही ऐसा क्योँ हुआ जो वो माँ नहीं बन पाई ..
और दूसरी ओर जो स्त्री माँ बन जाती है पीड़ा सहने के बाद उसको बच्चे के जन्म के बाद भी तकलीफों का सामना करना पड़ता है दिन रात जग कर माँ उसका पालन पोषण करती है इसमे भी उसको तकलीफ होती है लेकिन फिर भी वो इस तकलीफ में भी सुख का अनुभव करती है ..
बच्चा धीरे धीरे बड़ा होता जाता है और माँ उसके लिए नए नए सपने बुनने लगती है .. की मैं अपने बच्चेके लिए ये करुँगी या फिर वो करुँगी ..लाखो सपने सालो तक बुनती है माँ ..और क्या सभी माताओ के बुने हुए और देखे गय सपने पूरे होते है जवाब नहीं ही होगा क्योंकि माँ तो १०० में एक या दो ही कुमाता हो सकती है लेकिन कपूत की संख्या का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है और माँ का कुमाता होना उसकी मजबूरी होती है नही तो माँ कभी भी कुमाता न हो ..और माँ के द्वारा देखे गय सपने अक्सर टूट ही जाते है टूटे भी ऐसे है की उनका आता पता तक नहीं चलता है ....और उस समय एक माँ शायद यही सोचती होगी की मैं बे-औलाद होती तो शायद बढ़िया ही होता कम से कम सुकून तो होता की मैं अकेली हु और अकेली ही रहूंगी लेकिन ये अकेलापन और ये तिरिस्कार औलाद होने के बाद बर्दास्त करना मुश्किल होता है ...और माँ अक्सर अकेले में बैठ कर यही सोचती है की न जाने कितने सपने हम रात भर उसको चुप करा कर देखा करते थे न जाने कितनी खुशिया उस समय महसूस होती थी जब गर्भ में रह कर वो अटखेलिया किया करता था लेकिन क्या मालूम था की आज वो बड़ा होकर इस तरह की हरकते भी करेगा ....आज उसने मुझे ही मेरे घर से निकाल दिया .. न जाने कितनी बार मैं खुद भूखी रह कर उसको खाना पहले खिला देती थी न जाने कितनी राते खुद जाग कर उसको सुला देती थी लेकिन आज भी रात में जाग रही हु और आज भी भूखी हु लेकिन उस भूखे रहने में उस अनिद्रा में सुख था उससे ज्यादा आज दुःख है ..
और दूसरी ओर उस असहाय और रोटी , भूखी माँ को खाना देने के बाद वो बे-औलाद स्त्री यही सोचती है की आज अच्छा हुआ मेरे कोई संतान नहीं है औलाद होने के बाद जो सुख मिलता है उससे ज्यादा दुःख तब होता है जब वो साथ नहीं देते जिस समय हमे उनकी सबसे ज्यादा जरुरत होती है / क्या इसका मतलब था की भगवान मुझे हमेशा खुशदेखना चाहता था क्या .../ क्या औलाद होने के बाद मैं खुश होती और जब उस तरह ही जिस तरह पौधे को सीचने के बाद जब वो पेड़ और वृक्ष बनकर फल और छाव देने की बारी आती तभी मुझे किनारे कर देता ..और वो दुःख ज्यादा असहनीय हो जाता .. न जाने कहा रखा जाता मुझे कभी सडको के किनारे कभी वृद्धाश्रम में नहीं मैं बे औलाद ही ठीक हु/
..
चार दिन की चांदनी और फिर अँधेरी रात इसका मतलब लगाना ही मुस्किल है क्योंकि जब असल में माँ और पिता को अपनी संतान की सबसे ज्यादा जरुरत होती है उस वक्त ही संतान उससे किनारा कर लेती है तो उस समय कष्ट तो होगा ही .. जब पिता और माता क़र्ज़ लेकर उसे अच्छी शिक्षा दिलाते है और बड़ा आदमी बनाते है और वो बड़ा साहब बनने के बाद अपने साथ काम करने वाले लोगो से अपने माता पिता को नहीं मिलाता है क्योँ क्योंकि उसे शर्म आती है उनके रहन सहन और सोचने के तरीके पर क्या उस समय कष्ट नहीं होता है उन माँ बाप को ? क्या नहीं करते है माँ बाप अपने बच्चो की खुशी के लिए उनकी खुशी और उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए वक्त पडने पर अपने आप को गिरवी तक रखने की सोच लेते है और वही संतान या बच्चा बड़े होने पर ये कहे की आप ने किया ही क्या है मेरे लिए तब ? और ये कहे की ये तो आपका फ़र्ज़ था पैदा किया था तो ये तो करना ही था ...इस तरह के अल्फाजो से माँ बाप का दिल इतना छलनी होता है उनके मन से यही आवाज़ निकलती है की क्या इस दिन के लिए ही इतना बड़ा किया था अगर हमारा ये फ़र्ज़ था तो तुम्हारा कोई फ़र्ज़ नहीं बनता है रातो रात जागकर सुलाया है तुम्हे अपनी तकलीफों को भुला कर तुम्हारी तकलीफों को महसूस किया और दूर किया क्या ये मेरा फ़र्ज़ था क्या मैं खुद भूखी रह कर तुम्हे खाना दिया क्या ये मेरा फ़र्ज़ था .. हा शायद ये ही मेरा फ़र्ज़ था क्योंकि इस दुनिया में माँ और पिता की ममता ही एक ऐसी चीज़ होती है जो बदले की भावना से काम नहीं करती है की मैं ऐसा करूँगा तो ऐसा होगा ..
और फिर एक माँ दुखी होकर फिर यही सोचती है की मैं निसंतान होती तो ज्यादा अच्छा रहता अपना सब कुछ बेचकर आज बच्चो को दिया और बच्चे आज हमे फ़र्ज़ का पाठ पड़ा रहे है हे ...
ये एक सच्ची घटना है की एक मजबूर आदमी गाव से शहर आता है पैसा कमाने के लिए रात दिन मेहनत करता है और पैसे जोड़ता है पता है क्योँ गाव में उसकी पत्नी माँ बनाने वाली है मेरी एक दिन यु ही उस इन्सान से मुलाकात होती है और उस दिन वो रिक्शा चला रहा था मैने रिक्शा तय किया और चलने को कहा और उसके बताय गय दाम पर तैयार भी हो गया लेकिन चलते चलते उसने मुझेसे कहा की बाबु मैं कल गाव जा रहा हु घर में लड़का हुआ है मैने कहा अच्छा बड़ी खुशी की बात है फिर उसने कहा की ये मेरा पाचवां बच्चा है तो मुझे हसी के साथ आश्चर्य भी हुआ की ये रिक्शा वाला कितने पैसे काम लेगा जो 5 - 5 बच्चो का पालन पोषण कर लेगा न ही उन्हे सही शिक्षा मिलेगी नहीं ही सही तरीके का रहन सहन .और 5व बच्चा होने के बाद भी उसके चेहरे पर उतनी ही खुशी जैसे इसका ये पहला बच्चा हो .. तभी वो रिक्शा वाला बोला बाबु जी जानते है की ये मेरा पहला बच्चा है जो एक हफ्ते तक आराम से है नहीं तो सभी बच्चे मारे हुए ही पैदा हुए है अब मैं पहले से ज्यादा आश्चर्य चकित था उसका दुःख साफ नज़र आ रह था मुझे ! तभी उसने कहा की साहब ये पाचवां बच्चा है और भगवन ने इसे सही सलामत दिया है और कल मैं गाव जा रहा हु अगर आप अपनी मर्ज़ी से किराय के अलावा कुछ और दे दे तो मेहरबानी होगी मैं एक दुकान में नौकरी करता हु और कल से दुकान में काम करने के बाद रिक्शा भी चला रहा हु की कुछ ज्यादा पैसे जोड़ लू .. अपने बच्चे के लिए मैने उसकी मजबूरी समझी और किराय के अलवा कुछ और पैसे दिया .. और उसके बाद यही सोचता रहा की इन्सान क्या नहीं करता है अपनी औलाद की खुशियों के लिए लेकिन वही औलाद क्या नहीं करती अपने माता पिता की खुशियों के लिए ये एक सवाल भी और जवाब भी ..
फिर मैने सोचा की उस माँ का क्या हाल होता होगा जो 9 महीने तक यही सोचती रहती थी की अब मैं एक बच्चे को जन्म दूंगी और उसका बच्चा मृत पैदा होता था वो भी एक बार नहीं बार बार ..खैर आखिर में भगवान ने उसे औलाद दी अब वो खुश है लेकिन एक सवाल फिर यहाँ उठता है पूछता है की अगर बड़ा होकर अपने माता पिता को घर से बेघर कर दे अपनी खुशियों के लिए उन्हे दुःख दे उन माँ बाप पर क्या बीतेगी जिन्होने इतनी जतन से उसे पाया और पाला पोसा था सोचिये ..क्या उस माँ का दुःख उन चार बच्चो के न होने पर हुआ होगा जो दुःख और कष्ट आज वही बच्चा उन्हे दे रहा है वो बड़ा है ...की उन बच्चो के न रहने पर जो दुःख उसे मिलता था वो बड़ा था .. शायद ये दुःख ज्यादा बड़ा होगा की न होते तो संतोष तो हो जाता लेकिन होने के बाद कोई ये कहे की य आपका फ़र्ज़ था अपने किया ही क्या मेरे लिए तब ज्यादा दुःख होता है /
इस समय वो बे-औलाद स्त्री यही सोचती है की मैं ज्यादा खुश हु सुखी हु उन माताओं से जो बच्चो को जन्म देने के बाद से लेकर उनके व्यस्क होने तक उनकी सारी तकलीफों और जरूरतों का ध्यान रखती है .और बच्चो के व्यस्क होने पर वही बच्चा ये कहे की माँ तुम्हे तो अक्ल ही नहीं है तुम जमाने के साथ चलती ही नहीं तो इसे में जो दुःख उन्हे मिलता है उस दुःख से मैं दूर ही रहना चाहती हु अपना घर होते हुए भी जब सडको और वर्धा आश्रम में रात बितानी पडे इसी माताओं से अच्छी हु मैं बे औलाद ...अपने घर में तो हु ..संतान के होते ही भी दर दर खाने के लिए भटकती माँ उन माताओं से अच्छी बेऔलाद अपने घर में भूखी अच्छी हु ...
हा उनको सुख मिला जो किसी ने उनको माँ कहा ...
हा उनको सुख मिला जब उन्होने बच्चे को जन्म देते समय पीड़ा सही ...
हा उनको सुख मिला जब जब वो भूखी रह कर पहले अपने बच्चे को खाना देती थी ..
लेकिन जब वास्तव में उन्हे सुख मिलना चाहिए था तब उन्हे दुःख मिला अपनों के होते हुए भी आज वो अकेली है सब के होते ही भी आज वो बेसहारा है .. क्यों

और दूसरी और आज मैं दुखी होती हु जब ये सोचती की क्या मुझे कभी कोई माँ नहीं कहेगा ..
हा मैं दुखी होती हु जब मैं ये सोचती हु की क्या मैं हमेशा बे औलाद रहूंगी ...
हा मैं दुखी होती हु जब मैं ये देखती हु दूसरी माताओं को दुलार करते हुए ..
हा मैं तब दुखी होती थी जब मैं अकेले खाना खाती थी ..
लेकिन तब ज्यादा सुखी और अपने को खुश महसूस करती हु जब बेसहारा माताओं को देखती हु तब लगता है की नहीं है तो कम से कम असर तो नहीं है आज मैं बे औलाद हु तो खुश तो हु ...

मैं स्त्री हु मैं माँ नहीं तो क्या
मैं अकेली हु लेकिन खुश हु तो क्या
मैं दुखी हु इस बात से से की कोई आया ही नहीं ..
लेकिन मैं खुश हु इस बात से की कोई आकार गया तो नहीं
मैं प्यासी हु तो मुझे एहसास नहीं की प्यास क्या है ..
लेकिन पानी पीने के बाद की प्यास से मैं व्याकुल तो नहीं

आशीष त्रिपाठी

5 टिप्पणियाँ:

  1. आशीष तुमने बहुत अच्छा लिखा और यथार्थ भी लिखा लेकिन इसके विषय में यह कहना है की अगर हम आने वाले दुखों की सोच कर कर्म करना ही बंद कर दें तो इस सृष्टि का क्या होगा? सब बे-औलाद होना इस डर से स्वीकार कर लें कल तो औलाद को दगा देना ही है तो फिर इति हो जाएगी इस सृष्टि की. सारी दुनियाँ ऐसी ही है ये तो नहीं कहा जा सकता है. प्रकृति एक अपना संतुलन बना कर रखती थी. सारे बुरे नहीं होते - नितांत व्यक्तिगत बात कहती हूँ. मेरी सासु माँ दो बेटों की माँ थीं. जो उनको बहुत बड़ी उम्र में पैदा हुए. दोनों के बीच ७ साल का अंतर. स्वाभाविक है की बड़ा आँख का तारा होगा. माँ की इच्छा का सम्मान करते हुए छोटे ने कभी साथ न छोड़ने की सोची और उनके जीते जी बहुत दुःख उठाये लेकिन माँ को दुःख न होने दिया. उसी घर में एक साथ रहते हुए बड़े बेटे ने माँ से सरोकार न रखा. छोटे ने अपनी माँ के एक एक्सीडेंट हो जाने पर अपंगता आने के कारण ३९ साल तक निःस्वार्थ सेवा की. कभी कुछ नहीं चाहा - खुद ही करता रहा. जब मैं उसके साथ जुड़ी तो मैं भी उसी रास्ते चल दी.
    एक घर में दो बेटे दो स्वभाव के. एक बिस्तर पर पड़ी माँ के आवाज देने पर भी कहता की - 'इसको मौत भी नहीं आती, कब मारेगी ये.' वह कानों से बहरी और आँखों से न देख पाने के कारण कुछ कह न पाती लेकिन तेवर से सब कुछ समझ लेती. सौ साल की हो कर स्वर्ग सिधारी. उसने एक औलाद से औलाद वाली होने का सुख पाया तो एक औलाद से बेऔलाद होने की कामना की. अब क्या कहोगे? ये प्रकृति संतुलन बनाये रखती है. सब एक से नहीं होते. अभी माँ की गरिमा शेष है और जब तक ये सृष्टि रहेगी शेष ही रहेगी. माँ बनेगी और बनती रहेगी.

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  2. इस मामले में केवल प्रकृति को सोचने का अधिकार है,वह जो करना चाहती है वह किसी को नही पता है जो हमे पता है वह केवल आज के और बीते हुये कल की जानकारी से ही आकलन किया जा सकता है। मानव शक्ति धन की शक्ति प्रदर्शन करने की शक्ति मानसिक शक्ति बुद्धि की शक्ति रोजाना के काम करने की शक्ति महसूस करने की शक्ति जोखिम लेने की शक्ति सामाजिक मर्यादाओं पर चलने की शक्ति केवल अपनी ही प्रभुता दिखाने की शक्ति केवल और केवल लाभ में रहने की शक्ति तथा दूसरों के भले के लिये अपनी इन शक्तियों का ह्रास करना ही औलाद का सुख माना जाता है,इसके अलावा केवल जनगणना के आंकडे बढाने से अच्छा है बेऔलाद ही रहना.

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  3. rekha ji aur guru ji aap dono mere se umra me kafi badey aur anubhava waley hai ..apkey vicharo ka main samman karta hu aur sath hi unsey shamat bhi hu .... bas mera lekh likheny ka vichar tab aya jab main khud ek pita bana aur kya kya kasht uthaney padtey hai maa bap ko usko samjha .. tab main is nishkarsh par pahucha ki kya badey honey key bad bacchey esa kyon kartey hai .. rekah ji jaisa paney kaha ki apkey yaha bhi kuch esa hi hua .. tab dukh hota hai .. insan sab bhul jay bas pana bachpana na bhuley bas vo hamesha insan bana rahega ..
    dhanyawad aap sabhi ka blog par aney key liye ..
    raju ranjan yadavji apka bhi ..

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  4. वाकई बहुत बारीकी से उकेरा है। अच्छे लेखन के लिये बहुत-बहुत बधाई आपको।

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